'बंधन'
ग़र सच कहा जाए तो हर इंसान को,
किसी न किसी 'बंधन' में बंधे ही रहना चाहिए.....
'बंधन' अर्थात किसी ज़ंजीरों में जकड़े रहना नहीं,
बल्कि समय का 'बंधन' या फ़िर कर्तव्यों का 'बंधन'.....
रिश्तों में बंधे रहना या फ़िर अनुशासन का 'बंधन',
यह 'बंधन' ज़िंदगी को जिंदा रखता....
ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार 'बंधन' में बंधकर,
झाड़ू कचरे को साफ़ करता है...
और यदि 'बंधन' मुक्त हुआ तो ख़ुद कचरा बन जाता,
और मिट जाता अस्तित्व उसका....
'बंधन' मुक्त होते ही मिट जाती हैं ख्वाहिशें,
बिखर जाते हैं टूट कर सपने...
ख़त्म हो जाती हैं आशाएं,
और मिट जाती है ज़िंदगी जीने की चाह....-
😊😊
कुछ ख़ास रिश्ता है कलम और इन पन्नों से जिससे बयाँ करती हूँ ... read more
जिस प्रकार धरती की किसी नदी में ,
वह मिठास नहीं.......
जो समंदर का खारापन ,
तनिक भी कम कर सके......
ठीक उसी प्रकार ,
किसी भी शब्द में वह सामर्थ्य नहीं.....
जो उम्मीदों की टूटन से ,
उपजी उस पीड़ा को बयां कर सके.......-
नहीं हूं मै उन तमाम खुशियों की हकदार......
कुछ ऐसे मेरे ही दिल में ,
हर ख्वाहिशों को दफनाया गया......
लड़की है ये बड़ी सब्र वाली ,
ऐसा सोचकर ......
यारों हमें तो अंतिम हद तक ,
आज़माया गया........✍🏻✍🏻-
तुम्हें ज्ञात था मेरा सबकुछ....
फ़िर भी मन की व्यथा को...
तुम समझ न पाए....
बना लिया था हमने अपनी ज़िंदगी तुम्हें..
और एक तुम...
जो मेरे कभी हो न पाए.....
था मेरा तुम संग रहना मुश्क़िल...
ग़म-ए-ज़ुदाई भी सहना मुश्क़िल...
अरे! दिल-ए-दास्ताँ भी सुनानी तुम्ही को...
और तुमसे सब कुछ कहना मुश्क़िल....
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सावन की अँधेरी रात जब , वो चंद कलियाँ मुस्कुराती थी।
हर दिए वो पुराने ज़ख़्मों-दर्द , मुझे सारी रात जगाती थी।।
माना चल न सकती थी , मै दो कदम तुम्हारी तरफ़।
आ जाते तुम्ही किसी बहाने से , गर तुम्हें मेरी याद सताती थी।।-
ख़ुद के जीवन के किताबी पन्ने.....
वह ख़ुद ही पलट कर पढ़ती हैं.....
ख़ुद ही कर ख़ुद की कुछ बातें....
वह ख़ुद ही ख़ुद की सुनती हैं......
हो न 'बैर' किसी की राहों पे.....
ख़ुद के पथ पर ही चलती है....
एक 'कान्हा' उसके मीत हैं.....
न उन बिन ज़िंदगी समझती है....
न है इस जग से प्रीत उसको.....
कुछ यूँ साधारण सी वो लड़की है....
✍️✍️-
हे मेरो कान्हा! , हे मुरलीधर!
मेरी तो श्याम! , कछु बस की रही न.....
मेरो बहुत , जियरा घबराए....
कान्हा! , तुम बिन रहा न जाए.....
असुवन से भीग , यो तन-मन मेरो...
मोपे तू कान्हा! , क्यूँ तरस न खाए...
"कान्हा! तुम बिन जिया न जाए.."
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सुनो! 😔
स्टोर रूम में पड़ी.....
उस उलझी हुई सी.....
रस्सी की तरह........
कुछ उलझ सी गई है......
"ज़िंदगी"-
अक्सर...
लौह की ज़ंजीरों से ,
न बँधे होकर भी हम.......
जकड़े होते हैं एक बंधन में ,
न होकर ख़ुद में स्वतंत्र.......
स्वैच्छिक........
नाचते हैं दूसरों के इशारों पे ,
देकर डोर अपनी ज़िंदगी की उन हाथों में........
घोट देतें हैं गला अपने ख्वाहिशें और ,
उन तमाम अरमानों का ........
फ़िर होकर भी दिन के उजालों में ,
ताउम्र भटकते हैं अपने..........
"अंदर के वीरानों में".........
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तुझ संग बिताए वो हर पल ,
साहब! मुझे याद आते हैं....
बैठ जाती हूँ अक्सर उठकर
रातों में ,
तुझसे दूर जाने के ख़्वाब
मुझे बहुत सताते हैं....
कैसे बताए तुझे इस दिल का हाल ,
न जाने कितने दर्द दबाए बैठे हैं....
अपने ख्वाबों में, अपनी हसरतों में
तेरे संग हसीं दुनिया बसाए बैठे हैं.....-