भोली भोली शक्लों पर ये झूठी हंसी
दिल से दुखी धोखा है सभी सोचा है कभी
आसमां की छत के नीचे आंख खुले
आंखें जिनकी प्यासी है प्यासे हैं गले
कंधे पर लेकर बोरा दिन रात चले
वहीं है इनकी मंजिल जहां सूरज ढले
न दूध न दही न खाएं न कभी पास्ता
नहीं मिल पाता उसे सुबह का नाश्ता
जिन्दगी में सपना न कोई उसका अपना
न मंजिल का पता न कोई रास्ता
अंगूठों के बल चलता है धूप में
खाने के सिवा सोचे क्या भूख में
प्यासा मीठी पुकार का प्यासा मां की पुकार का
कचरा उठाता घूमता है वो सारे बाजार का
हमारे घर से कचरे में फेंका खाना खाता है
कुत्ते भी न खाएं जिसे वो ऐसा खाना खाता है
उस खाने में भी अच्छा बुरा न उसने देखा है कभी
सोचा है कभी ये होता है सभी
सोचा है कभी सोचा है कभी
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