आदिवासी नारी हो तुम,
बचपन से पिता को,
लड़का सा मात देकर,
कन्धों से कन्धे मिलाकर घर मे हाथ बटाती हो,
झटपट घर के काम निपटाकर,
खेत खलिहानों को भी,
खुद सा महकाती हो,
तपती धूप में भी,
छावं की उम्मीद न करकर,
तुम संघर्ष पर संघर्ष करती जाती हो,
आदिवासी नारी हो तुम,
उन घने जंगलों में,
जहाँ तुम्हारा गांव है,
शेरनी सी बनकर तुम,
सर पर लड़की के गठ्ठे रखकर,
ऊँची पहाड़ियों पर से,
तुम बिना रुके बिना थके,
घर तक लाती हो,
चहरे को आईने में न देखकर,
न अपने बालों को संवाहार कर,
तुम जिम्मेदारी के आगे अड़िग खड़ी हो जाती हो,
उम्र का तो मुझे अनुमान नही,
तुम बस अपने हुनर से पहचानी जाती हो,
आदिवासी नारी हो तुम,
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