मैं शायरा हुँ, क़ब्र कि ज़मीन तक,चुम कर आ जाती हुँ, लोग पूछते हैं हमसे, ज़ख्म से खेल कैसे लेते हो तुम, मैं नज़रे और पलके झुका कर कह देती हुँ, अधूरी ख्वाइशों का नाम ही तो शायरा हैं|
सिर्फ सपने देखने से कोई बड़ा नहीं बनता है... यहां तेज दौड़ना पड़ता है, अपने रास्ते में आने वाले बाधाओं को तोड़ना पड़ता है,
ये ज़िन्दगी है दोस्त यहां मंज़िल पाने के लिए कभी कभी रास्तों को भी अपने हिसाब से मोड़ना पड़ता है। ना जाने ये ज़िन्दगी हमसे क्या क्या करवाती है लेकिन जिसकी मेहनत सच्ची होती है, अंत में उसको मंज़िल मिल ही जाती है।
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