लंबे अरसे तक दीवारें सुनती रहीं...न जाने सहसा कैसे दीवारों के नैन-नक्श भी दिखाई देने लगे हैं, अब उनके भाव-भंगिमाओं से कमरे की रौनक घटती-बढ़ती है...
कमरा छोड़ते वक़्त हमने यह भी जाना कि वे चीखती भी हैं...रोकती हैं या मुस्कुरा कर विदा देती हैं, यह कभी समझ नहीं पाई, पर इतना जाना कि उन पर सामानों के और बीते दिनों की अनगिनत यादें गंथ गयीं। तसल्ली है कि नये लोगों के वास्ते इन दीवारों की पुताई हो जायेगी.... ये विरह की वेदना में नहीं जीयेंगी...तसल्ली है कि वो परत सिर्फ़ हमारी ही रहेगी...तसल्ली है कि अंत में हम सुनना बंद कर देंगे और वे बोलना...दीवार अंत में दीवार ही रहेगी और इन्सान अंत में इन्सान...!
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