बेपरवाही उस बयार की सबसे बड़ी देन थी। मैं चाहती थी कि मेरे केश सलीके से उड़ें, पर चलती हुई बयार को पसन्द था कि केश चेहरे को छूकर जाएँ, कभी आँखों के नज़ारे ढक जाते तो कभी बातों के बीच में हस्तक्षेप कर जाते...! मैं उन दिनों सबसे ऊँचे टीले पर बैठी थी, पर मेरे बैठने में बेपरवाही नहीं थी, दोनों हाथों से टीले के दो नुकीले कोनों को पकड़ रक्खा था, वह आती और पहले देह की पहली परत की बस एक झिल्ली भर को छू कर चली जाती, मुझे महसूस हो जाता था कि इस झिझक में अजनबिय्यत है, वह फिर आती और देह की दूसरी परत को छूती, फिर केश के साथ क्रीड़ा करती, मैं मना करती या जाने देती यह मेरे विचार में ही नहीं था, मैं ऊँचाई पर आँखें टिकाए बैठी थी। वह बयार इतनी तेज़ थी कि कस कर बाँध दिया जाना भी बालों के लिए सज़ा नहीं थी...वह एक विफल प्रयास था...! इस कोने से उस कोने तक फैली हुई बयार को मैंने महसूस करने में देर की थी शायद। धीरे-धीरे मैं इस क्रीड़ा को समझने लगी थी पर ऊँचाई का अचरज कम हो चुका था, अब छूअन का दौर था..!
वह बयार थी, तूफान नहीं था, वह केवल ऊँचाई थी, जहान नहीं था।
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