तुम्हारी आवाज़ में घुला इंद्रधनुष
दिख रहा है मेरे आसमान के पूरब में,
तुम्हारा छूना रेत के महल बना रहा है
मेरे होश के किनारों पर,
मेरी उदासी को सहलाते हो तुम
और उसकी पीठ पर खिल आते है पंख,
तुम बुलाते हो मेरा नाम जब
मुझमें जाग उठती हूं मैं।
मेरे अंधेरे में जला आते हों
चुपके से एक चिराग़,
मेरी रौशनी में जितने भी जुगनू,
जितने भी आफताब हैं,
सब तुम्हारे जीने की ख्वाइश के साए हैं।
तुम सिर्फ़ एक जिस्म, एक रूह, एक मन नहीं हों,
तुम सिर्फ़ एक नींद, एक ख़्वाब, एक नींद से जागने का अमल नहीं हों,
तुम केवल आग, पानी, आसमां, ज़मीन और हवा का मिलना नहीं हो,
तुम मेरी ही रूह का अक्स हो
जो कायनात के एक सिरे की दूरी
21 वर्षों में तय कर
मुझ तक लौटे हो।
जैसे किसी बंजर पेड़ पर
लौटे हों फल, फूल, बहार और परिंदे।
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