उन शब्दों ने मानो उसका अस्तित्व ही झकझोर दिया।
अपने वजूद की तलाश लिए,वह उन शब्दों को मन ही मन दोहरा कर एक जंग में खुद को स्थूल पड़े देखती है। स्त्री-सम्मान का नहीं वह समाज की कुरीतियों का भी समक्ष ब्योरा कर पा रही है।
स्त्री होने के हर पड़ाव,हर तत्व,हर रूप से उसे घृणा के अतिरिक्त कुछ ना रह गया है। देह में इतनी स्थिरता है कि वायु का वेग भी उस पर आघात करता है।
यह उसके प्रेम का परिणाम नहीं तो और क्या है?
जिसका सर्वस्व नीलाम हो जाए उसे शब्दों का लोभ क्या होगा?
जिसका आसमान उससे छिन जाए उसे भोर की लाली क्या लोभित करेगी?
मन की खेती सूखती है तू शब्दों का गला घोटा ही जाता है। आत्मसम्मान की वह मूरत, यथार्थ की इमारत से गिरकर खंड-खंड हो गई।
इस खंडित स्वरूप से वह स्पष्ट देख पा रही है-
स्त्री होने की कुछ सीमित रेखाएं, ह्रदय के क्षितिज से लौटती हुई लाचारी की किरणें, विवशताओं का नग्न स्वरूप, मूक-बधिर कल्पनाओं से निकलता शंखनाद।
उसके निकट से होकर आज मृत्यु गुजरी है,अवश्य ही कल वह इसे भी पा लेगी।
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