–प्रेम–
सुनो!!!
प्रतीक्षा प्रेम की, अब विरह व्यथा का रूप ले चुकी है,
हो सके तो तुम तनिक शीघ्र आना।
कलह, द्वंद्व में व्यस्त है मन मस्तिष्क मेरा,
तुम कुछ शांत संगीत लेते आना।
कदाचित मेरे उच्छृंखल व्यवहार से रुष्ठ होगे तुम,
हो सके तो अपने प्रेम के बंधन में, मुझे बांध लेना।
ये जो वाचाल ओष्ठ हैं, मेरे,
अपने शीतल अधरों से लगा कर, इन्हें शांत कर देना।
रोम रोम उद्वेलित द्रव सा हो उठा है,
अपने स्नेहिल स्पर्श से इसे स्थिर कर देना।
अंगों के कंपन को, अपने आलिंगन में लेकर,
थोड़ा निश्चिंत, राग रहित कर देना।
निष्काम प्रेम की कल्पना की है मैने,
मेरी कल्पनाओं को वास्तविकता से पूर्ण करना।
भावनाओं की अठखेलियों में, कभी निराशा हाथ आए,
तो कुछ पल नीरव नयन संवाद से, ऋजु होने देना।
मै कोई प्रेम में परिणिष्ठित व्योम बाला नहीं,
स्वच्छंद, साधारण, भावनाओं में व्यस्त स्त्री हूं।
कुछ विकल, व्याकुल, कुंठित, हृदयोद्गारों को,
अपने मधुर कंठित वर्णों से निश्चांचल कर देना।
भ्रमित अवधारणा प्रेम के मोह जाल की,
तुम अपने प्रेम की पराकाष्ठा से भंग कर देना।
सुनो!!!!
यदि संभव हो, तो तुम शीघ्र आना।
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