तुम वो हो जिसको कभी कोई पत्र नही लिखा मैंने,
कविताएं लिखी तुम्हारे इंतज़ार में, कभी भेजी नही,
ना खुद पढ़ी वापस, बस लिखती ही गई ताकि कहीं
कुछ भुला नहीं जाऊं, और कुछ कहना छूट ना जाए,
तुम जानते हो कि क्यों लिखती हूं, शब्द में ही सही...
तुम भी तो साथ जीना चाहते हो... तुम जानते ही हो
मुझे भी, नहीं लिखूं तो तुमको कहूं, ना कह सकूं....
तो कहां, कैसे बचा कर रखूं, भारी ना होऊं मैं कहीं,
कविताएं और कहानियां ऐसे रचते रहती हूं जैसे अब
तुम्हारे हिस्से का भी मैं लिख डालूं, फिर साथ पढ़ेंगे
ना जाने कब, ना जाने कैसे? या टुकड़ों में जीते रहेंगे!
पर ये सब के सब, हां सब सच में हमारे शब्द हैं सिर्फ़,
तुम्हारे लिए, हमारे लिए, मेरे लिए.... जो सजाए हैं मैंने,
कुछ तो हमारे लिए होगा रखा उपर वाले ने भी आखिर,
कुछ नहीं तो चंद घड़ियां मांगती हूं, तुम भी मांगना कभी।
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