कभी-कभी लफ्जों को भी सुकून की चाहत होती है पढ़ लें जो लफ्जों की जुबां वो खामोशियाँ होती हैं.. जो सुन न सके आवाज खामोशियों की उससे कुछ कहने की जरूरत ही कहाँ होती है..
जो लव्ज़ ही नहीं समझे तो आँखें क्या पड़ पाओगे जो मुहोबत्त ही नहीं समझे तो मुहोबत्त क्या कर पाओगे जो जज़्बात ही नहीं समझे तो साथ क्या निभा पाओगे जो अभी तक तुम नहीं समझे तो दो पल में क्या समझ जाओगे