ख़ता आंखों की थी जो उसके नाम पर छलक पड़ीं,
वरना इन लबों पर फ़रेबी हीं सही इक मुस्कान तो थी।
दफ़्न जज़्बातों की आह उठती रही रह-रहकर सीने से,
मगर जीने के लिए तब भी बाकी मुझमें मेरी जान तो थी।
बंटवारा हो चुका था पहले ही मेरी सांसों का बग़ैर मेरे हीं,
मेरे नाम में भी मुझसे पहले किसी और की पहचान तो थी।
हरबार तोड़ गएं वो ही जिनपर भरोसे की नींव डाल दी कभी,
मैं बस सबकी ज़रूरतें पूरी करने भर की इक सामान तो थी।
कभी बादलों में जा छुपी तो कभी हवाओं से दोस्ती गांठ ली,
किसी अल्हड़ बच्चे की पल-पल बदलती सी अरमान तो थी।
कुछ बेअसर दुआओं की रंगत बेअदब इच्छाओं की संगत सी रही,
मैं किसी नासाज़ श़ख़्सियत की बस कोई बेतुकी सी फ़रमान तो थी।
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