चकाचौंध के बाजार में दिल की किताब लिए बैठा हूँ
यार मैं ठोकरों के बाद भी तजुर्बों की कतार में बैठा हूँ
अनजान नहीं है बस थोड़ा सा बेपरवाह है मेरा महबूब
सूख गया है इंतज़ार का गुलदस्ता मगर मैं लिए बैठा हूँ
पर उनसे कभी बातों सिलसिला चला तो मैं कह दूँगा
तुम बे-फिक्र लौटकर आओ मैं आज भी वहीं बैठा हूँ
मैं उसकी बेजान दुनिया का एक छोटा सा सितारा हूँ
अबइन बेबस निगाहों से बस उसी के इंतज़ार में बैठा हूँ
ये धूप की कहानियां छाँव मैं बैठकर नई लिखी जाती
समझो वक़्तके इशारे को में क्यूँ और किसलिए बैठा हूँ
'कपिल' ये मोहब्बत हिचकियों में तब्दील ना हो जाये
मैं, उसकी यादों के डर से गर्मी में लिहाप ओढ़ें बैठा हूँ
-