हार गया वो अपनी मंजिल है।
थम गया उसका सफर है।।
केहना बेचारा चहता बहुत कुछ था।
उसकी चाहत के साथ आशियना चहता था।।
पर उस दिये को उजाला कर न पाया।
दासताँ अपने इश्क की,बयां कर न पाया।।
लकीर चिंता की उसकी चाहत के सिर पर।
गायब अपने होठों से कर कर न पाया।।
बात उसको यह समझा दी।
दिल से उसकी चाहत-ए-चाह।
मिटाने की कोशिश में ,
तकदीर ने कुछ इस तरह ,
उसे उसकी हैसियत बता दी।।
हार बेठा वो अपनी रूह है।
घड़ी घड़ी पूछ रहा हरि से,
केशव बिन राधिका।
क्या यही मोहब्बत की रीत है?
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