कि बात हुई भी और नहीं भी...
भनक फिर भी लग गई ज़माने को...
किसी पुराने घाव से जख्मी थे वो...
बिताए कई रोज़ हमें आज़माने को...
हम यादों का कपड़ा बुन ही रहे थे...
के उन्होंने कह दिया सब भूल जाने को...
अब करेंगे क्या हो कर हम नाराज़ भी...
जब वो आते ही नहीं हमें मनाने को...
कि कोशिशें हज़ार के कुछ बात बने...
पर शायद हम लिख रहे थे इश्क़ अपना उर्दू में...
उस अंग्रेज को समझाने को...
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