एक बेटी जो ख़ूँ-रंग से सफ़ेद हुई है प्यार में कुछ ज्यादा,
ढल गया जो घर का रंग था वो है धनक सी कुछ ज्यादा।
चाहती है चाहत को ये भी बिना जाने क्या कम है क्या ज्यादा,
सदा जो पा के रही ज़ख्म से भरी तो चाहती है कुछ ज्यादा।
चाहती है बिना समझाए समझे उसका बाप उसे कुछ ज्यादा,
क्या देख लिया ख़वाब में जो चाहती है अंजुम से कुछ ज्यादा।
समझती है अब प्यार को वो और रहती है बाहर ही ज्यादा,
लड़की जो अल्पवयस्क है मगर सुबुक-सारी है कुछ ज्यादा।
वो मानती है प्रेमी को पवित्र और घर वालो की मार को ज्यादा,
तकल्लुम के बिना ख़ामोशी से करती है तज़ल्लुम कुछ ज्यादा।
बेटी वो जो जीवन का ज्ञान समझती है बाकियों से ज्यादा,
नादान है जो अंधविश्वास में है ना की सबक़ से कुछ ज्यादा।
भावनाएं दबाए है मां-बाप से और चिल्लाती है मन में ज्यादा,
एक बेटी जो जीना चाहती है परायापन में कुछ ज्यादा।
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