जीती हमने सारी दुनिया, भीतर भीतर मन हारे है,
जिस पनघट से पानी मांगा, उस पनघट के तट खारे है!
जीवन के इस महासमर में, चक्रव्यूह से घिरे रहे हम,
जिन लोगों को अपना माना, उन 'अपनों' से छले गए हम,
उपहारों की सूरत में, मन को तो हर पल घाव मिले है,
फिर भी वक़्त का पहिया थामे, अभिमन्यु से टिके रहे हम!
शकुनि के पासों से हम, इस जीवन का चौसर हारे है,
जिस पनघट से पानी मांगा उस पनघट के तट खारे है!
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