Rahul Barthwal   (RB Poetry)
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Joined 11 April 2017


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Joined 11 April 2017
1 JUL 2020 AT 6:46

हिजरत के नए दर्द से मारे गए थे हम,
जब वादी-ए-जन्नत से निकाले गए थे हम!

ये कौन हमें बेसबब आवाज़ दे रहा,
वरना तो ज़रूरत में पुकारे गए थे हम!

हम थे किसी जंगल में करीने से उगे फूल,
बेवक़्त हवाओं में उखाड़े गए थे हम!

ना थी किसी अखबार में हिजरत की कहानी,
इस तौर सरेआम भुलाए गए थे हम!

हमको किसी सूली टंगा वो शख़्स मिला था,
जिस शख़्स के छूने से सँवारे गए थे हम!

हम थे वो उदास ओस जो पत्तों प गिरी थी,
हम ख़ुद न गिरे थे हाँ गिराए गए थे हम!

हम भी थे परिन्दें तिरे जंगल में ऐ वनदेव!
फिर क्यूँ तिरे जंगल में डराए गए थे हम?

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1 MAY 2019 AT 15:28

जिन हाथों में होने थे गुब्बारे और कलम साहिब,
उन हाथों को मज़बूरी के छाले ढ़ोने पड़ते हैं!

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11 MAR 2019 AT 16:32

दरिया वाले तो सागर के पानी से मर जाते हैं,
कितने बादल बिन मौसम बारानी से मर जाते हैं!

एक परिंदा जब पतझड़ में छोड़के जाने लगता है,
शाखों के गिरते पत्ते हैरानी से मर जाते हैं!

बचपन वाले वादों से रिश्तों की नींव को मत रखना,
कितने रिश्ते वादों की नादानी से मर जाते हैं!

मंदिर का पत्थर तो सोने की चादर को ढकता है,
सड़कों पर सोने वाले उरयानी से मर जाते हैं!

कोशिश करना रिश्तों का ये पौधा हर दम हरा रहे,
वरना पौधे गमले में बेध्यानी से मर जाते हैं!

हमको तो दुनिया में हर दिन मर मरकर ही जीना है,
वो किस्मत वाले है जो आसानी से मर जाते हैं!

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29 JAN 2019 AT 11:31

जीती हमने सारी दुनिया, भीतर भीतर मन हारे है,
जिस पनघट से पानी मांगा, उस पनघट के तट खारे है!

जीवन के इस महासमर में, चक्रव्यूह से घिरे रहे हम,
जिन लोगों को अपना माना, उन 'अपनों' से छले गए हम,
उपहारों की सूरत में, मन को तो हर पल घाव मिले है,
फिर भी वक़्त का पहिया थामे, अभिमन्यु से टिके रहे हम!

शकुनि के पासों से हम, इस जीवन का चौसर हारे है,
जिस पनघट से पानी मांगा उस पनघट के तट खारे है!

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19 DEC 2018 AT 19:19

आवाज़ें बन्द कमरों में चिल्लाती है,
सड़कों पर गूँगे ही शोर मचाते है!!

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26 NOV 2018 AT 7:56

मुझको वो नाटक भी जीना पड़ता है,
जिसमें सब किरदार ही मरने लगते है!

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20 OCT 2018 AT 13:03

ख़ुद ही ख़ुद में कितना डूबा रहता है,
ये पत्थर तो बिल्कुल मेरे जैसा है!

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8 SEP 2018 AT 18:46

इस दुनिया से उस दुनिया का जाने कौनसा रस्ता होगा,
जाने कहाँ ठहरते होंगे, हम सब मर जाने के बाद!

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31 AUG 2018 AT 9:36

मैं उसको सच दिखाने से डरता हूँ,
शीशा हूँ, टूट जाने से डरता हूँ।

तेरी आँखें, नदी सी गहरी जानाँ,
हाँ उनमें, डूब जाने से डरता हूँ।

तो बोलो क्यों सुनाऊँ मसलें अपने,
मैं बहरों को, सुनाने से डरता हूँ।

वो तो रहता नहीं, अब मेरे भीतर,
मैं क्यों उसको मिटाने से डरता हूँ?

वो पत्थर ही ख़ुदा है मेरा जानी,
मैं उसको, भूल जाने से डरता हूँ।

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16 JUL 2017 AT 9:15

मन मे खिली तरंग, और खिला है अंग अंग,
रूपसी के रूप से, चंद्रिका भी फिर लजाई है,
नैन कंचन कटार जैसे, नीर की हो धार जैसे,
श्रृंगार तेरा देखके, एक कली भी अलसाई है,
यौवन की देह काया, स्वरूप उर में समाया,
काले काले मावस में, रोशनी खिल आई है,
यूँ आतुर हुए गगन, आतुर भीगे नयन,
मिलन को आतुर धरा भी, आज आई है !!

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