अपनी सब उम्र लगा ख़ुद को कमाते हैं हम..
और लम्हों में कमाई को गँवाते हैं हम..
ख़्वाब था अपना कि सब हम को मयस्सर हो जाए
अब यही रंज है सो आँख चुराते हैं हम..
इक अजब नींद के आलम में गुज़रती हुई उम्र
ख़ुद को आवाज़ पे आवाज़ लगाते हैं हम..
रोकने से भी तो रुकता नहीं दरया-ए-हयात
सो इसी धारे में अब ख़ुद को बहाते हैं हम..
क़ब्र और शह्र में कुछ फ़र्क़ नहीं है 'सानी'
बस यही, रोज़ कहीं सुब्ह को जाते हैं हम..
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