साहेब
मेरी मां बहुत दिनों से भूखी है
एक रोटी मिलेगी-
मीडिया
राजनीति के कोठे पर बैठी
वो तवायफ़ है
जो हर रोज़ बिका करती है-
राजनीति हो गयी है विवेकहीन
मीडिया चरित्रहीन
और हम सब संवेदनहीन-
बूढ़ी माँ बुहार रही थी आँगन
बेटी गैलरी से मीडिया डिलीट कर रही थी-
खुले आम हर रोज, बिकता है मीडिया
बेईमानी की स्याही से लिखता है मीडिया
करता है बलात्कार, कागज का कलम से
सच्चाई को छिपाता, झूठ और भरम से
बना न लेना भूल से, हमराज इसे अपना
घाघ है पर नादान, दिखता है मीडिया
छोटी छोटी खबरों को, ऐसे उछालता
मिले न खबर तो प्रिंस को गड्ढे में डालता
बिल्ली भी दिखाई न दे, जहाँ दूर दूर तक
शेर आया, शेर आया, चीखता है मीडिया-
मीडिया पीड़ा का 'आधार' नहीं
'व्यापार' ढूढ़ता है!
व्यापारी है 'हम'
फिर भी नही समझते
'मूल्यों' को
है समझना वहीं
जो 'सहज' हो
'दो जून' रोटी के क़ाबिल
परिवर्तित है
समय का चक्र
तो क्या 'मूल्य' भी?
इंसानियत ,सम्वेदना
ईमान , धर्म
आज सब कुछ 'गिरवी' है
'साधन' इस 'संसार' में
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कुछ लोग बोलने लगते हैं
अच्छा है बोलना चाहिये
मुँह दिया है भगवान ने
तो समय समय पर खोलना चाहिये।
पर मुँह के साथ साथ
आँख कान दिमाग भी तो मिला है।
उन्हें भी खोल लिया करो।
देखो मगर
वो नहीं जो मीडिया दिखा रही है।
सुनो मगर
वो नहीं जो नेता कह रहे हैं।
सोचो और समझो
बोलने से पहले।
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मख़मल के पैहरनो से खुरदरी जमीं को नापे है
अख़बारों ने छालें नहीं , पैर के निशान छापे है-