गई जब रामी धोबन एक दिन, दरिया पे नहाने को
वहां बैठा था चंडीदास, अफ़साना सुनाने को
कहा उसने छोड़ दे रामी, सारे ज़माने को
बसाना है उल्फ़त का घर, आहिस्ता आहिस्ता-
सजल जीवन की सिहरती धार पर,
लहर बनकर यदि बहो, तो ले चलूँ
यह न मुझसे पूछना, मैं किस दिशा से आ रहा हूँ
है कहाँ वह चरणरेखा, जो कि धोने जा रहा हूँ
पत्थरों की चोट जब उर पर लगे,
एक ही "कलकल" कहो, तो ले चलूँ
मार्ग में तुमको मिलेंगे वात के प्रतिकूल झोंके
दृढ़ शिला के खण्ड होंगे दानवों से राह रोके
यदि प्रपातों के भयानक तुमुल में,
भूल कर भी भय न हो, तो ले चलूँ
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एक रचना को कहा था, बीस कविता पेल दी
ऊब कर श्रोता मरेगा, क्या करेगी चाँदनी?
एक बुलबुल कर रही है, आशिक़ी सय्याद से
शर्म से माली मरेगा, क्या करेगी चांदनी?
गौर से देखा तो पाया, प्रेमिका के मूँछ थी
अब ये ‘हुल्लड़’ क्या करेगा, क्या करेगी चांदनी?
(पूरी रचना अनुशीर्षक में)
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कर दिए लो आज गंगा में प्रवाहित
सब तुम्हारे पत्र, सारे चित्र, तुम निश्चिन्त रहना
दूर हूँ तुमसे न अब बातें उठें
मैं स्वयं रंगीन दर्पण तोड़ आया
वह नगर, वे राजपथ, वे चौंक-गलियाँ
हाथ अंतिम बार सबको जोड़ आया
थे हमारे प्यार से जो-जो सुपरिचित
छोड़ आया वे पुराने मित्र, तुम निश्चिंत रहना-
कल सहसा यह सन्देश मिला, सूने-से युग के बाद मुझे
कुछ रोकर, कुछ क्रोधित हो कर, तुम कर लेती हो याद मुझे।
जिस विधि ने था संयोग रचा, उसने ही रचा वियोग प्रिये
मुझको रोने का रोग मिला, तुमको हँसने का भोग प्रिये।
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ग़ैरों से कहा तुम ने ग़ैरों से सुना तुम ने
कुछ हम से कहा होता कुछ हम से सुना होता-
मैंने देखा है
'प्रेम' में
'निवाला' तोड़ते हुवे
'प्रेमी' को
'प्रेमिका' के लिए
कैसा होता अगर
'प्रस्तुति' का ये भाव
'प्रस्तुत' होता
'उत्पत्ति' के
'माध्यम' को
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एक चुम्बन माथे पे
और प्रेमिका के बाहों से जकड़ा हुआ शरीर
प्रेमी को बचा लेता है आने वाले हर दुःखो से !!
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अर्धांगनी हूँ ... तुम्हारी ...!
प्रेमिका भी बनना चाहती हूँ ,
आखरी साँस तक का सफर ...
तुम्हारी प्रेम दिवानी ,
बनकर करना चाहती हूँ ....
पत्नी बन रुकमणी मैं कहलाऊँ ,
जो हो प्रेम की वार्तालाप ....
राधा बन तुम संग इठलाऊँ ,
पति के आँगन की मिट्टी कहलाऊँ ....
लांघकर चौखट तुम्हारी ,
तुम्हारे प्रेम पुजारन भी बन जाऊँ....-