एक दो तीन,
चिबिल्ला है चीन,
चार, पांच, छः,
परेशानी की वजह,
सात, आठ, नौ,
इंतज़ार क्यों?
दस, ग्यारह, बारह,
चढ़ गया पारा.!
तेरह, चौदह, पंद्रह,
करो सीधा हमला !
सोलह, सत्रह, अठारह,
देश हमको प्यारा,
उन्नीस, बीस, इक्कीस,
भारत पड़ेगा बीस..!
सिद्धार्थ मिश्र-
सुबह सुबह पवन के फोन से आंखें खुली। एक एक शब्द सुलगता सा महसूस हुआ। सुबह की फ्लाइट से जाने की खबर ने, जैसे गर्मी को और भी गर्म कर दिया। 8.30 पर निकलने वाली फ्लाइट, अब कहा पहुंची होगी?
सिर्फ अनुमान ही लगा सकता हूँ। तुम अब शहर से मीलों दूर निकल चुकी होगी। मुझसे दूर बहुत दूर, मेरी कल्पनाओं में अलग अलग चित्र तैर रहे हैं। तुम यहाँ होगी, तुम वहां होगी। सिर्फ कल्पना के रंगों से तुम्हारी तस्वीर बना सकता हूँ। जो भी हुआ अच्छा या बुरा नहीं जानता। लेकिन तुम्हारे जाने के साथ ही तुमसे दूर होने का डर हमेशा के लिए ख़त्म हो गया। अब बिछड़ने के ख़ौफ़ से आज़ाद हूँ मैं। जाओ खुश रहो।
सिद्धार्थ मिश्र-
दाटलेल्या मनाला सावरुन
आजही निष्ठेने जगते ती..
जनव्यापी तिरस्कृत स्वभावात
स्वतःचे सामर्थ्य बघते ती..
रोज बघणाऱ्या घृणास्पद
नजरेला स्वतः अनुभवते ती..
या असुरक्षित जगात
टीकेत न्हाहते ती...
काय रे तिचा दोष, कुणाची
बहिण, आई ,पत्नी, मुलगी ती..
एक निर्दोष स्त्री तरी
बलात्काराचे रूप बघते ती..
खरचं स्वतंत्र आहे का ती...?-
वसुधा पर,
जीवन का आधार!
आत्मा से,
परमात्मा तक विस्तार!
आत्मोत्सर्ग तक,
प्रेरित करता विचार!
विकार से,
स्वतंत्र करता उपकार,
आत्मबोध तक,
निर्देशित व्यवहार!
सिद्धार्थ मिश्र-
स्वतंत्रबाबा का ज्ञान:😊
बिना पढ़े निकल लेना महापाप,😊
बिना पढ़े सूखी like अतिशय पाप😚
पढ़ लिखकर भी इच्छाओं को दबाकर संवादहीनता बनाये रखना घनघोर पाप..!
दिल से पढ़ना।दिल छू जाने पर गुदगुदाने पर लाइक ही नहीं अपना प्रोत्साहन देना ही पुण्य है yq वासियों।।
अब देखता हूँ आप क्या हैं:-
सिद्धार्थ मिश्र-
उदासी से पूछो वफ़ा की कहानी,
लबों पे शिक़ायत ये आंखों में पानी.!
तुम्हे क्या खबर है मेरी मुश्किलों की,
सज़ा से भी बदतर हुई जिंदगानी..!
जमाने को क्यों दास्तां हम सुनाएं?
वो बेहाल बचपन परेशान जवानी..!
छलकते ये आंसू बताते हैं यारों,
दफ़न है यहां दास्तान एक पुरानी..!
ये गजलें ये नज़्में हैं सौगात ग़म की,
स्वतंत्र क्या मैं लिखता मेरी बदगुमानी.!
सिद्धार्थ मिश्र
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बेचैनी क्यों हर पल है?
जाने कैसा दौर है ये?
जिसको देखो पागल है!
आज जियो जीवन अपना,
जो होगा,होना कल है..!
चिंताओं की धुंध में गुम,
मन आवारा बादल है..!
स्वतंत्र ख्यालों में जैसे,
लहराता सा आँचल है..!
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दूरी का कुछ क्लेश नहीं है,
कुछ भी कहना शेष नहीं है.!
प्रेम से तुम्हें विदा करना है,
मन में कोई आवेश नहीं है..!
उजड़े मन के प्रतिमानों में,
जीवन का अवशेष नहीं है..!
स्वतंत्र तुम्हारी इच्छाओं से,
मुझको कोई द्वेष नहीं है..!
विरक्ति मेरी चिर स्थायी है,
यह परिवर्तित भेष नहीं है..!
झंझावात अगर है जीवन,
मेरा ये परिवेश नहीं है..!
सिद्धार्थ मिश्र
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बसन्त को आने दो,
फिर देखना,
तुम्हारे अंतस में दबे,
चेतना के बीज!
आकार लेंगे,
फूलों का,
लाल,पीला,
नीला,सफ़ेद
हर रंग तुम्हारे भीतर है,
बसंत को आने दो।।
सिद्धार्थ मिश्र-
भूल गया मैं शिकवे सारे,
कोई बात नहीं है..!
ख़त्म करो सब बीती बातें,
कोई बात नहीं है..!
पढ़ सकता हूँ आंखें तेरी,
दिन है रात नहीं है..!
दूर नहीं हूँ साथ हूँ तेरे,
कोई बात नहीं है.!
कुछ दिन की बाधाएं हैं बस,
कोई बात नहीं है..!
सिद्धार्थ मिश्र
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