जहां मेरा दिल खो गया था
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जहाँ तुम रहते थे
यहाँ तो सिर्फ तुम्हारी यादें है
टूटे हुए एहसास है
खोये हुए जज्बात है ।।
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यदि होता किन्नर नरेश मैं राज महल में रहता,सोने का सिंहासन होता सिर पर मुकुट चमकता।
बंदी जन गुण गाते रहते दरवाजे पर मेरे,प्रतिदिन नौबत बजती रहती संध्या और सवेरे।
मेरे वन में सिंह घूमते मोर नाचते आँगन;मेरे बागों में कोयलिया बरसाती मधु रस-कण।
मेरे तालाबों में खिलती कमल-दलों की पाँती;बहुरंगी मछलियाँ तैरती तिरछे पर चमकातीं।
यदि होता किन्नर नरेश मैं शाही वस्त्र पहनकर;हीरे, पन्ने, मोती, माणिक-मणियों से सज धज कर,
बाँध खड्ग तलवार सात घोड़ों के रथ पर चढ़ता;बड़े सवेरे ही किन्नर केराजमार्ग पर चलता।
राजमहल से धीमे-धीमे आती देख सवारी;रुक जाते पथ, दर्शन करने प्रजा उमड़ती सारी।
‘जय किन्नर नरेश की जय हो’ के नारे लग जाते;हर्षित होकर मुझ पर सारे लोग फूल बरसाते।
सूरज के रथ-सा मेरा रथ आगे बढ़ता जाता;बड़े गर्व से अपना वैभव निरख-निरख सुख पाता।
तब लगता मेरी ही हैं ये शीतल, मंद हवाएँ;झरते हुए दूधिया झरने इठलाती सरिताएँ।
हिम से ढकी हुई चाँदी-सी पर्वत की मालाएँ;फेन रहित सागर, उसकी लहरें करतीं क्रीड़ाएँ।
दिवस सुनहरे, रात रुपहली ऊषा-साँझ की लाली;छन-छनकर पत्तों से बुनती हुई चाँदनी जाली
-द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी-
ये शहर वो शहर नहीं,
ये जमाना वो जमाना नहीं !
ये लोग वो लोग नहीं,
ये रोग कोई मामूली रोग नहीं !
सही समझे,
ये प्यार वो प्यार नहीं,
ये झगड़ा वो झगड़ा नहीं !
इन बातों में वो बात नहीं,
मालूम है ?
फिर भी, कोई बात नहीं,
क्योंकि ये रात, वो रात नहीं !
ये उमर वो उमर नहीं,
ये जवानी वो जवानी नहीं !
ये कहानी वो कहानी नहीं,
क्या समझे,
नया शहर है तो,
कुछ तो बात अलग होगी !
ऐसे ही कोई ये नहीं कहता,
ये शहर वो शहर तो नहीं !-
हजारों उम्मीदें लेकर आए थे हम गाँव से शहर!
लेकर एक सपना मन में बनेगी मेरी अलग पहचान।
लौटकर आऊँगी जब गाँव तो होगा मेरा भी सम्मान।।
पर ये शहर वो शहर तो नहीं!....
जो कल्पनाओं में था मेरी!!......
सुबह सवेरे उठने से लेकर समय रात के २भी होते;
न होती पढ़ाई सही से, सुकून से कहाँ हम जी पाते?
चंद लोग मिलते यहाँ पर वी भी अपने मतलब से।
मकान मालिक के ताने सुनकर हो जाते हम बेबस से।।
न कोई पूछे खाना खाया?क्यूँ देर से आए तुम?
हम हैं न साथ तुम्हार,फिर क्यूँ घबराए तुम?
घर में आजादी नहीं थी, फिर भी आजाद थे हम;
इस शहर ने तो आजादी देकर आजादी छीन ली हमसे।
एक सपने ने तो हमें बेघर बना दिया!..
गाँव की इस हरी-भरी जिन्दगी को बंजर बना दिया!!...-
जहाँ तुम्हारे घर के बाहर
हमारी साईकल पंचर होती थी।
ये शहर वो शहर तो नही,
जहां तुम्हारे पाजेब की
आवाज खनकती थी।-