काश वे बच्चे होते किसी धर्म के किसी राजनितिक संस्थान के तो होते किसी ना किसी के तो काम के ,
तब कोई ना कोई तो आवाज़ उठाता उनके लिए तब कोई ना कोई तो लड़ जाता उनके लिए,
पर अफ़सोस वो सिर्फ देश का भविष्य थे ऊपर से सिर्फ परिवार का विषय थे,
तभी तो सिर्फ परिवार ही पढ़ रहे है दुखो कि एक कहानी गढ़ रहे है,
जिसे ना कोई सुनेगा ना कोई सुनायेगा बस खुद को ज़िम्मेदार इंसान होने का ढोंग रचायेगा,
प्यार कि कहानी हो ओर किसी सिनेमा घर कि जुबानी हो तो हर कोई रोता है,
इस भारत मे गरीब क़े बच्चो का दुख अपने सुख क़े लम्हो मे कौन कमबख्त बोता है!
वो हमें देख रहे होंगे बच्चे है ना उन्हें माँ - बाप क़े आंसुओ पर रोना आ रहा होगा,
ओर इससे भी ज्यादा रोना आ रहा होगा इस मुर्दा समाज पर जो जिन्दा नज़र आ रहा है!
हम सब है उनके गुन्हेगार ये हमारा ज़मीर हमें बता रहा है,
सोच तू खुद - खुदसे क्या खुदको छुपा रहा है?
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27 JUL AT 22:31
26 JUL AT 22:49
मासूमियत भरी मौत है गरीबी
यहां चर्चा भी शहादत मांगती है।
जहां निशब्द होती हैं मानवता दबकर
वहां चमकती हैं राजनीति अक्सर ।
जीना मुश्किल लगे मरना बेहतर
अपने घरों के चिरागों को खोकर।
दोषी कहूं क्या उस जर्जर इमारत को
या बहरे और अंधे राजनीतिक ठेकेदारों को।
#झालावाड़-