वो थे वाक़िफ़ ...इतना एहसान किया
हाथों से पिलाया ... ज़हर कुछ मीठा दिया
🍷
( हाली )-
देश से शहर की गलियों से होकर गाँवों में क़हर बन गई
हवाएँ नाराज़ है और इतनी नाराज़ है कि ज़हर बन गई
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ज़हर का जा़यका
अरे..
कोई हमसे भी तो पूछे ज़हर का,
जा़यका क्या है...?
हमारे अपने ही,
दिल के टूटने की हमारी ही, साज क्या है?
हे मेरे मौला बता,तेरी इसमें रज़ा क्या है?
फिर.. कोई चाहे, सोचे समझे..,
इक हसीन सी जिन्दगी को यहां से,
रुख़सत करने की,
बोलो..अखिर तेरी.. ठोस वज़ह क्या है?-
मोहब्बत का मुझको सिला दिया उसने
अपना समझ के ज़हर पिला दिया उसने
मैंने उसकी तरफ़ नज़र उठाकर नहीं देखा
फ़िर भी इल्ज़ाम मुझे ही दिला दिया उसने
क्यों उसकी खुश़ी को मेरा ग़म करेगा उदास
एक बुरा हादसा समझकर भुला दिया उसने
उसके पास ही होता था हर मुश़्किल में उसकी
मौका मिला तो किसी और को बुला लिया उसने
मेरे पास से गुज़र गये बिना कुछ कहे एक दिन
एक ही दिल था वो भी उस दिन जला दिया उसने
सुना है हर चीज़ मिलती है बाज़ार में "आरिफ़"
खुश़ी का बाज़ार ही अब वो हिला दिया उसने
"कोरे काग़ज़" पर लिखूँ भी तो क्या लिखूँ
हर अल्फाज़ ही गहरी नींद सुला दिया उसने-
दिल में ज़हर और पीछे खंज़र छुपाए चलते हैं,
अजीब लोग हैं सामने हँसकर मिला करते हैं !-
ये असर तेरा कैसा रहेगा ?
बगैर तेरे शहर कैसा रहेगा ?
अमृत बस बहुत हुआ अब,
ये बता जहर पीना कैसा रहेगा?-
चाहिए कुछ नहीं तुम मिरा साथ दो
बात मैं अब यही बोलता फिर रहा
कौन हो तुम अगर राज़ ये खोल दूँ
अब नहीं मैं ज़हर घोलता फिर रहा-
ऐ-खुदा अब तो खाने को भी नहीं बचा ज़हर
किसान के पास जो था वह फसलों में डाल बैठा-
पल भर में कई जिंदगियां रौंद देते हो,
बेटा हो के माँ की अस्मत लूट लेटे हो,
तुम्हें नौ माह सींचा गर्भनाल में जिसने,
उसे जड़ से उखाड़ कर ही फेंक देते हो,
मर जाता है उस रोज़ तेरी आँख का पानी,
दानव बन के अतड़ियाँ तक नोच लेते हो,
दूधमुंही बच्ची के भी मासूम शरीर में,
अपनी मर्दानगी का खंजर रोप देते हो,
क्या विक्षिप्त,क्या बूढ़ा किसी को ना छोड़ा,
हैवानियत का ज़हर फिज़ा में घोल देते हो,
जब भी मैं देखूँ पलट के अख़बार में खबर कोई,
फिर अपनी वहशीयत का नंगा नाच पेश करते हो,
बहुत रह चुकी खामोश गर्जेगी आज की नारी,
रे नापित रुक के हर कुकर्म का हिसाब देते हो|
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काश तासीर-ए-ज़हर होता नज़र में
इश्क़ अपना कौन फिर बोता नज़र में
लोग तासीर-ए-दुआ ही चाहते फिर
उस ख़ुदा की कोई कब रोता नज़र में
राज़-ए-मोहब्बत पास रखते सब छुपाकर
इश्क़ किसका कौन तब ढोता नज़र में
ख़्वाब में भी राज़-ए-दिल ही पास रखते
ख़्वाब किसका रोज़ तब सोता नज़र में
नरगिस-ए-साहिर लोग होते काश 'आरिफ़'
इश्क़ तब क्यों रोज़ फिर खोता नज़र में-