गुनाहों में मशग़ूल होकर ज़मीर भूल गया
इन्सान इश्क़ में है बहुत अमीर, भूल गया
एक तबस्सुम से बना सकता है हम-नफ़स
ख़ुद चलकर नहीं आएगी वो हीर भूल गया-
क़ासिद है वो हर बात की ख़बर है उसे
तू कुछ भी कर तेरी ही तो नज़र है उसे
दुनिया उसे ज़मीर के नाम से जानती है
तेरा झूठ बोलना भी लगता ज़हर है उसे-
ज़मीर
बोलना चाहता है
इन्सान मुँह खोलना चाहता है
पर खोलता नहीं,
चीख़
बाहर आना चाहती है
सभी लोगों तक जाना चाहती है
पर जाती नहीं,
आँख
रोना चाहती है
कुछ ज़ख़्म धोना चाहती है
पर धोती नहीं,
गुनाह
होते आ रहे हैं
हम क्या क्या खोते आ रहे हैं
क्यों खोते नहीं?
ओ ख़ुदा
क़यामत यही है
या अभी आना बाक़ी है?-
आज वो जमींदार है
और मैं भूमिहीन!
कैसे?
उसने ज़मीर बेची,
मैंने ज़मीन !!-
''तोहमत तो कई देंगे ज़माने वाले
मैं बदनाम भी हो जाऊंगा
तू सब्र तो कर ऐ मेरे ज़मीर
तेरे लिए ख़ाक भी हो जाऊंगा''-
सुना है मुझमें अना बहुत है
ज़मीर मेरा जला बहुत है
सबात मुझमें भरे अगर वो
पता चलेगा दग़ा बहुत है
मिला नहीं दिल किसी से मेरा
सभी पे अक़्सर मिटा बहुत है
मुरीद उसका हुआ नहीं मैं
उबाल दिल में घना बहुत है
कभी उसे भी निकाल 'आरिफ़'
लिहाज़ दिल में रखा बहुत है-
कीलें इस खुरदुरी जिन्दगी की, इतनी गहराई तक गई हैं,
नींव मेरे ज़मीर की कोई हिला नहीं सकता।-
इंसान हो,होना चाहिए तुझमें ज़मीर,
फर्क नहीं पड़ता हो तुम कितना अमीर।
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