एक दुआ लिख के किसी पन्ने पे
किताब कहीं रख दी।
शायद किसी रोज़ उस तक पहुंच जाए।।-
अपनी जिदंगी के कुछ लम्हें,
मैं गुमनाम जी रही हुँ!
कुछ ज़हर बने गम् के आँसु,
हँस के पी रही हुँ!
न शिकवे कुछ, न कुछ गिले,
किसी से कर रही हुँ!
बस बीत जाए ये वक्त,
इस इंतज़ार में जी रही हुँ!
जो कहते थे,
हैं हम तो अबसे हमसफ़र आपके!
हमारी सारी खुशियाँ हुईं आपकी,
हमारे नाम हुए आज़ से गम़ सारे आपके!
पर कठिनाईयों के पल में,
न वो हमसफ़र काम आए!
एक पल भी शोलों के,
न वो हमकदम सह पाए!
क्या कहुँ कि,
दुख गहरा है मन में!
उनसे मिले धोखेबाज़ी का,
पाया है सिला हमने,
किए इश्क् में ज़ल्दबाजी का!
जिंदगी एकांकी है,
यहाँ बर्बादी का गम़ फिजु़ल है!
अब मैं ही हुँ स्वयं की,
बाकि सब धूल हैं!
अब अंतर्मन हरदम,
कह रहा डाँट के!
अब गमगीन युँ न होइए,
कि वो न रहे आपके!
आपसे पहले ये न बन सके,
अपने भी बाप के!
बस जिंदगी की कश्ती को,
वक़्त के बहाब संग खेते जा रही हुँ!
मिल जाए कोई साहिल,
ये रब से दुआ माँगती हुँ।
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