मैं मासूम परिंदा,
क़ैद हुँ!
अपने ही गुनाहों की सलाख़ों में,
बस आजकल तन्हा हुँ,
हज़ारों और लाखों में।
छोड़ अपने देश,
मैं परदेश आई!
अपनों का साथ और प्यार,
कहीं दुर फेंक आई!
अब प्यार ढुँढ़ती हुँ!
अपनों से शक्ल वाले बेगानों में,
और ताउम्र का साथ,
किसी चार दिन के मेहमानों में।
अब चाहती हुँ गुम़ हो जाना,
दूर कहीं आसमानों में!
और कभी लौटकर न आऊँ,
फिर कभी बेगानों में।
मैं मासूम परिंदा,
क़ैद हुँ!
अपने ही गुनाहों की सलाख़ों में...
-