रामायण
(याज्ञवल्क्य भरद्वाज सम्वाद)-
गंग की मैं धार हूँ
प्रलय की वो पुकार हूँ
मैं भक्ति का ही सार हूँ
आनंद का संसार हूँ
श्मशान मुझमे जल रहा
निष्प्राण मुझमें पल रहा
मैं आदि मैं ही अंत हूँ
अनित्य हूँ अनंत हूँ
अघोर घोर घोर हूँ
हर छोर में हर ओर हूँ (मृत्यु काशी की)
तुम क्यों उधर भटक रहे
चिता में सब धधक रहे
क्यों मृत्यु से तू डर रहा
माया से मन को भर रहा
ये काशी मुक्ति धाम है
परम् मोक्ष का आयाम है
हर मोह को तू त्याग दे
मुझको तू अपना भाग दे
तारक मंतर का ज्ञान दूँ
तू आ तुझे विराम दूँ।-
लिखने बैठूँ तो अल्फ़ाज़ कम ही पड़े
जिसने मुझको लिखा उसको कैसे लिखूँ
खून अपना जला के है पाला मुझे
जिसने मुझको जना उसको कैसे लिखूँ
नींद अपनी गवाँ के सुलाया मुझे
जिसने गोदी दिया उसको कैसे लिखूँ
ममता सारी लुटा के जो खाली न हो
जिसकी इतनी वफ़ा उसको कैसे लिखूँ
आँसू अपना बहा के दुलारा मुझे
जिसन इतना किया उसको कैसे लिखूँ
खुद खुदा भी तरसता हो जिसके लिए
ऐसी होती है “माँ” उसको कैसे लिखूँ
दर्द सहती रही जिसने उफ्फ न किया
ऐसी मेरी है “माँ” उसको कैसे लिखूँ-
ये जो नशा बह रहा है हवाओं में
कहीं ये तुम्हारे आने की मदहोशी तो नही..?-
प्यार तो सभी किसा न
किसी से करते है चाहे
एक तरफा हो या दो तरफा हो,
मे कौन सा वफादार हु,
हु तो मेरी माँ भी तो चाहती है,
कि मेरे बेटे की शादी मेरी पसंद से हो।-