वो घुटन में कैद रिश्ते ढो रही है
रातों में टूटकर तन्हा रो रही है
एकतरफा संभाले है डौऱ हाथ
बहते अश्क़ गमे रंज हो रही है
कश्मकश में यूँ घिरी वो रो रो वह
मानो सांसे उसकी गैर हो रही है
ठहर जाती है देख गैरत अपनी
यूँ खुदमें खुदसे नफ़रत बो रही है
एक मासूम ने रोका है इस कदर
उसकी फ़िक्र में अधूरी हो रही है
क्या लिखूं अब दास्ताँ मै उसकी
देख नसीब, मेरी कलम रो रही है
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