एक भीनी सी,
मुस्कान को तरसते हैं.
हाँ वही जो कभी ज़रुरत के,
सामान को भी तरसते हैं.
वो, जिन्होंने गिरवी रखे थे,
अपने आखिरी आंसू भी,
तुम्हारी ज़रूरतों की खातिर.
आज वो प्यार के,
दो बोल को तरसते हैं.
नहीं होती है मुहैया उन्हें,
तुम्हारे नए घर में,
एक दरी, एक सिराहना भी.
बची हुई ज़िन्दगी उनकी,
वृद्धश्रमों में निकलती हैं.
क्या लगती उनकी दुआएं तुम्हें,
इतनी सस्ती हैं?
@Jainendra
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