मेरी पुरानी कविता जाने क्यों अब मुझे नई लगती हैं।
उसके लफ़्ज़ों की कारीगरी अब मुझे सुरमई लगती हैं।
माँ की बातें तो क्या ही कहूँ जैसे "इनायत" हो रब की।
सच बताऊँ तो माँ की ख़ामोशी भी ममतामई लगती हैं।
इश्क़ का असर जैसे धीरे-धीरे चढ़ने लगता हैं रगों में।
इश्क़ की हरकतें उफ्फ, हर एक पल जादुई लगती हैं।
जो भी होता हैं किसी न किसी मक़सद से ही होता हैं।
जिंदगी के हर मसले में मुझे ख़ुदा की ख़ुदाई लगती हैं।
अब "परेशानियों से परेशान" नहीं होता हूँ मैं मेरे यारों।
मुझे ये परेशानियाँ अब "हौसला अफ़जाई" लगती हैं।
बार-बार होकर भी कोई काम पूरा ही नहीं हो पाता है।
फिर भी लगा रहता हूँ मुझे ये रब की रूबाई लगती हैं।
आसपास का सबकुछ मुझे बड़ा अच्छा लगता हैं "अभि"।
क्योंकि ये पूरी दुनिया मेरे भगवान की बनाई लगती हैं।
-