ख्वाहिश नहीं कोई बने मेरा हरीफ़।
ख़ुदा करें करम, में रहूं यूं ही शरीफ़।-
तीर तलवार के आगे,
हम कलम को अपनाते हैं,
चित्रगुप्त के वंशज,
हम कायस्थ कहलाते हैं,
सृष्टि का कारभार,
जो लेखा-जोखा करते हैं,
चलो आज...
भगवान श्री चित्रगुप्त जी की
आराधना करते हैं..!!-
दरख्त पर लिखा तेरा नाम आज भी नजर आता है
पढ लेता है हर वो राहगीर,जो इधरसे गुजर जाता है
और याद आती है उन्हे भी अपनी वो अधुरी कहानी
फिर याद आता है उन्हे,ईसी दरख्तसे पुराना नाता है-
इक कलम बन बैठी है मेरी रफ़ीक़,
जब से वह बन बैठी है मेरी रक़ीब।-
उसके दिल से मेरे दिल का रीश्ता कब का टुट गया
नाहक!..
लोग आज भी मेरे सांसो से उसकी सांस जोडते है-
वक़्त मिले,
तो ये कलम चुप कहां रहते है साहेब,
हम कायस्थ हैं,✍️
लेखनी पे ही जीते हैं,
और लेखनी की ही फ़ज़ा में मोअत्तर हैं..!!-
रात के करीब-करीब 8 बजे की ही बात थी,
हॉस्टल की खिड़की के उस पार एक अजीब सी आवाज़ थी,
और खिड़की के इस पार भी कुछ उसी शोर की बात थी,
कोई कह रहा था... " यार कुछ हो रहा है.."
कोई कह रहा था... " कुछ गलत हो रहा है.."
कोई कह रहा था... " कुछ, नहीं.. बहुत ज्यादा गलत हो रहा है.."
और कोई तो ये भी कह रहा था... " रोज़ की बात है यार ,, छोड़ !.."
आख़िर हो क्या रहा था??
चीखें सुनाई तो मुझे भी दे रहीं थीं,
किसी की गिड़गिड़ाहट तो मेरे कानों तक भी आ रहीं थीं,
किसी का बिलखना मुझे भी महसूस हो रहा था
पर ये क्या""??
साथ ही साथ ये ठहाके की आवाज़ कैसी ??? ये हो क्या रहा था....??
और मैं यूं हीं चुप खड़ी बस ये सब सुन रही थी,
ये सब खिड़की के उस पार था, और हम खिड़की के इस पार,
हम हॉस्टल में बंद थे, और वो उस घने जगह पर क़ैद...
वो सिसक रही थी, बिलख रही थी,
वो उसे नोंच रहा था, ठहाके लगा रहा था,
लोग गुज़र रहे थे, हां वहां से लोग गुज़र रहे थे,
सब देख रहे थे, फिर भी कुछ नहीं देख रहे थे,
और कोई बड़ी बात नहीं,
क्योंकि सब देखते हैं, फिर भी सब कुछ नहीं देखते हैं,
हम भी तो देख रहे थे, पर हम कहां कुछ देख रहे थे..."""...
कुछ हमें दिखा ही नहीं, इस बार अंधेरा ज्यादा था ना ......!!-
क्या ही बोलूं अब.....
मुझे तो.....
हर नज़्म, हर गीत, हर सुख़न में
तुम ही तुम नज़र आते हो अब...😍...
तुम तो "मेरी धुन" बन गए हो अब...!!-
Teri shayari...
meri diary me bhi hai,
Mere hotho pe bhi hai,
Mere zahan me bhi hai,
Mere dil me bhi hai,
Or.. Meri ruh me bhi hai,
To soch na zara...
K ab tu kaha hoga..!!-
"मेरा महल"
कुछ तंग गलियों में कूदते फांदते,मैं पहुंच गई "अपने महल" में,
"महल" खूबसूरत था और मेरे लिए तो बहुत खूबसूरत था...,
पर थोड़ा-सा अलग था...
क्योंकी उसमे...ना कोई रानी और ना ही कोई राजा था...
उसमे तो बस प्रेम ही प्रेम समाया था,
मगर मुझमें और दुनियां में, बस यही से तो फ़र्क आया था..,
मेरा महल ज़रा दिखने में छोटा था, मगर दुनियां उसे झोपड़ी कहती थी,
ज़रूरत के सामान नहीं थे तो क्या....
मेरा महल तो प्यार से भरा-भरा था, मगर दुनियां उसे खाली और गरीब कहती थी,
खाने को दाना नहीं था तो क्या....
मेरे महल में तो वाणी की मिठास से ही, अनाज उत्पन्न होता था,
और हमारा पेट उससे ही भर जाता था,
मगर दुनियां उसे मजबूर और हमें लाचारी का उदाहरण मानती थी,
बिजली नहीं तो क्या....
मेरे महल में हर सुबह, एक नए उम्मीद की किरण झलकती थी,
और दुनियां उसे अंधेरे की आदी मानती थी,
हर रात हमें सुकून की नींद आती, और सुबह सुकून से शुरू होती थी,
क्योंकी हमारे मन में, अपने कार्य के प्रति श्रद्धा थी और आपस में प्रेम भावना थी..
मगर दुनिया इसे कहां समझती थी..
"वो तो हमारे इस सुनहरे "महल" को "झोपड़ी" ही मानती थी..!!"
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