गुमनाम सा हो गया था एक शायर,
आंख लग गई और सो गया एक शायर,
समा की महफ़िल में वो चिरागों को जलाता,
जलाते ही जल गया था एक शायर।
रूमी की मोहब्बत पाने की तलब थी,
शम्स तब्रेज़ ना मिला कोई मगर आह सही थी,
करना वो कुछ चाहता था अच्छा,
मगर क्या कुछ कर गया था एक शायर।
रूहों की तुंद में सैल ए रवां हुआ वो,
ख्वाहिश थी उसकी सो खुद ही जुदा हुआ वो,
कुछ ख्वाहिशें बताना चाहता था वो,
मगर क्या कुछ बता गया एक शायर
शेरों से हम लिबास में घूमा था जंगलों में वो,
भेड़ों के से लिबास को खूब पहचानता था वो,
"अज़हर" ने देखा उसको, चाहा उसे पकड़ना,
हाय दिल!! ना जाने कहां खो गया एक शायर।
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