सोच कर हम खडे थे, मंजिल किसे बनाए,
हजारो भीड मे हम , माझी किसे बताए.
कौनसी राह पर चलना , मालुम न था फरेबी,
हमारी आस्था की चादर, बोलो किसे चढ़ाए?
आवाज आई फकीर की, मिश्किन भी खडे थे,
मंजिल वही है तेरी , जहां अपना तुझे बुलाए.
बंद कर तू आंखे, आइना भी तोड देना,
नजरे झुका कर भी, तीर तुझ पे चलाए.
बैठे थे चूर बनकर, आबे-नहर के किनारे,
बांगी बनी अम्मी, अब्बू तुझे बुलाए.
अब्बू ने दी नसीहत, तू सब को जोड़कर रखना
"मंजिल" वही है तेरे , जहां "वालिद" तूझे सुलाए.
शुक्र किया खुदा का, हाथ जोड़कर दूआ की
जहां वालिद हो मेरे , आखिरत भी उधर सुलाए
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