"बचपन"
एक समय था जब
ना धन की कोई कीमत थी
ना तन की कोई फिक्र थी
एक नादान परिंदे थे ॥
पूरा दिन यूँ ही कट जाता था,
एक कच्छा, बनियान में!
थोडे़ से कंचों के लिए
दोस्तों से रूठ जाया करते थे,
खेलकर धूल मिट्टी में जब
घर को हम जाते थे,
माँ की चप्पल के आगे
कहाँ हम टिक पाते थे
पीटकर भी कहाँ हम
सुधर जाते थे !
अगले दिन फिर दोस्तों के
साथ नदी किनारे नहाने जाते थे ॥
समय बदला, लोग बदले
बदल गया संसार
ना मैं बदला, ना मेरी माँ बदली
ना बदले मेरे यार ॥
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