अकथ्य के भार से
अब ज़ुबान ऐंठती है
आशाओं की सारी नमी
पुतलियों पर जमती है
सो रहा हूँ अपलक,
अचेत हूँ, पर सुनता हूँ तुम्हारी हिचक
चले आओ, अवसान से पहले देख लो,
कैसे निगल रहा मुझे यह तमस
ठंडी देह में कैद धधकता अन्तर्मन,
धीमे नि:श्वास से उठती है ऊमस
ये मैं,
वो मेरी शिकस्त।
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