अनंत घृणा होना भी तो,
कोने में प्रेम के वास का प्रमाण है।
मरणासन्न होना भी तो,
थोड़े बहुत जीवित होने का प्रमाण है।
हाथ ख़ाली होना भी तो,
कर्म की प्रेरणा का प्रमाण है।
और सब की संवेदना का लोप होने पर
अपनी भावुकता का संरक्षण भी तो,
आदमी होने का प्रमाण है।
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सब्र का स्वाद
हर ज़ुबान को नहीं भाता
सहज ही, हमें पकने दो
तुम
धीरे, और धीरे उतरना मुझ में
हिंदी में उर्दू जैसे
कि तुम्हें स्वीकारूं तो तोहमत
नकारूं तो आफ़त
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कैसे,
गुलज़ार के गीतों पर सर रख
आधी से थोड़ी गहरी रात में जागते
तुम्हारा स्मरण
जैसे,
सरदी की दोपहर में धंटे-भर को
खिड़की से आती धूप में नाचते
धूल के कण
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खाल खींच कर भर रहा हूँ खुद में
तुम्हें, मुझे
जो आज हैं हम
अब इस कमरे के हर कोने से
निकलने लगी है
यही साँस हर दम,
कि तुम हो, आज हो, कल और कम, फिर सब ख़त्म।
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शहरों को गंदा करने वाले लोगों से मुझे अजीब नफ़रत है। खास कर वो जो हवा-पानी बदलने के लिए दूसरों के शहर, उनके घर, उनके काम करने की जगह को गंदा करते हैं। ऐसे लोगों के अपने घर या तो बहुत गुमनाम होते हैं या होते ही नहीं। जो रोज़ बैठते हैं चार आदमियों के बीच यह भुलाने को कि घर कहीं नहीं है। वे जहां आज हैं, वहां कल नहीं होंगे और यदि हुए भी, तो सब बदला हुआ मिलेगा। कोई दूसरा यहां से गुज़रेगा, ठिठक कर देखेगा, सिर को हल्का-सा एक ओर झुकाऐगा और पूछेगा–"नए आए हो? यहां के तो लगते नहीं!", इस वाक्य के साथ वो उखड़ जाएंगे बहुत छोटे-छोटे टुकड़ों में। ये टुकड़े आबो-हवा में घुलने की भरसक कोशिश करेंगे पर सिर्फ प्रदूषण कहलाएंगे, अमुक जगह उसकी सड़ांध के लिए मशहूर हो जाएगी और उसका सारा आकाश काले, महीन कणों से ढक कर सबको अवसाद में ढकेल देगा।
जो शहर जितना प्रदूषित होता है वहां उतने ही बेघर, बेबस, बेफ़रियाद आदमी बसते हैं। मर जाते हैं ठिकाना बनाते-बनाते, या उसका सपना देखते-देखते। वो रहना चाहते हैं कहीं किसी मकान में, किसी के मन में, ख़ुशी से।
नफ़रत है मुझे ऐसे लोगों से, मुझसे।-
मुझे करनी थी तुझसे बरसात की बात
नमी की, घटा की, हरे रंग की।
लेकिन आदमी नहीं, तू पेड़ है
शुष्क संवेदनाओं से सिंचा,
बंजर मैदान पर मोटी लकीर-सा खिंचा,
ठूंठ है।
मैं कह तो दूं तेरी छाल छूकर,
कि पत्ते आयेंगे, कोंपले फूटेंगी
पर मेरा ये आश्वासन भी,
झूठ है।-
ट्रांसफर के परवानों से त्रस्त है,
विस्थापन के हालातों से पस्त है।
फिर भी हमारा रिश्ता हर साल नये शहर आता है,
मैं और तुम गुज़र जाते हैं और समय ठहर जाता है।-
बरसात के लिए मेरा लालच कभी-कभी विनाश को आमंत्रण देने के बराबर हो जाता है, जैसे सूखे सावन से पगलाया मोर तांडव करने लगे तो देवता उसपर प्रसन्न नहीं होते, दंड देते हैं कि "मर! तू क्यों अपने स्वार्थ में सबका नाश करने पर तुला है? भारी बरसात तुझ अकेले की मुक्ति होगी, दूसरे क्यों डूबें?"
पर मोर मानता नहीं, नाचता ही जाता है कि अब बादल फटेगा और उसे बहा ले जाएगा। निगले हुए आँसू उसकी आवाज़ भिगो दिया करते हैं, आकांक्षाओं के कच्चे मकान धड़ल्ले से धराशायी होते हैं और कगार पर जितने सवाल खड़े थे, सब टूट-टूटकर तेज़ प्रवाह में विलुप्त हो जाते हैं। इस प्लावन से मोर का कण्ठ लबालब भर जाता है, एक बेशर्म आत्मा ग्लानि में डूबती-उतरती रहती है।
बाढ़ प्रकृति का विकराल रूप है,
मनुष्य का भी।
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सीली-सी कैद में हूँ पर खिड़की से धूप आती तो है,
फर्श पर पड़े मेरे फटे पन्नों से बासी हूक आती तो है,
नाउम्मीदी के सहारे जीता चलूं ये मरने से तो बेहतर है,
मिलने आती है रिहाई, थाली में थोड़ा झूठ लाती तो है।-
और हम चाहते हैं कि हम सब कुछ हो जाएं, यह भी-वो भी... सब कुछ जो दुनिया को समझ आए और हम अपने अधूरेपन को अजनबियों की तारीफ़ों से भर लें, क्या पता इसी से अगली सुबह आँखें खोलने का कारण मिल जाए पर, क्यों खोलनी हैं? क्या है ऐसा जो आज नहीं हुआ और कल हो जाएगा? परिस्थितियां बदल सकती हैं, सब अच्छा हो सकता है लेकिन सालों से जिस खालीपन को हम-तुम घसीट रहे हैं वो लहुलुहान होकर भी हम पर हँस रहा है। झंड हो कर हम इसे और अधमरा कर डालते हैं, सब के सामने उघाड़ कर रख देते हैं कि आओ! जो हमसे बचे उसकी कसर तुम निकाल दो पर इस रिक्त स्थान को भर दो।
पर ब्लैक-होल का सिद्धांत पता है न?
उसे भरा नहीं जा सकता, न समय से, न किसी की बातों से, न आध्यात्म से न खुद के अस्तित्व से...वो वक्त के साथ बड़ा होता ही जाएगा, यही उसकी प्रकृति है।
जब भीतर-बाहर सब शून्य है, तो क्यों खोलनी हैं आँखें फिर?-