अश्क़-रेज़ी की हमें आदत लगी है यूँ,
कि सफ़र में शरीक-ए-सफ़र से हों।-
मिलें मुद्दतो बाद भी सनम तो क्या बदल बैठा,
लिपटकर आस्तीन से अब भी शेर चुनती हूँ।-
राब्ता है इश्क़ से या है किसी ऐतबार से,
उन्हीं बेनाम राब्तों में है सुकूँ हर नाम से।-
मुहब्बत पीती हर रंज-ओ-ग़म इस क़दर
जैसे सोखता हो वरक़ हर बूँद स्याही का..-
जैसे - जैसे बढ़ती है
घर से दफ्तर की दूरी,
वैसे - वैसे राहों में
खतरा गहराता जाता है।-
आशिक़-वाशिक़ शायर-वायर होना भी बेहाली है,
जिसके पास भरा है जितना वो उतना ही ख़ाली है!-
जिस तिरंगे को उतारने में फक़त इक याम लगी,
उस तिरंगे को फहराने जाने कितनी जान लगीं!-
अपनी ढ़ेरों बातों के बीच कभी मेरा भी ज़िक्र किया करो,
ग़र हाँ नहीं मेरे हिस्से तो कम से कम ना ही कर दिया करो।-
जो निगाहें देखती राह तुम्हारा,वो अक्सर तुम्हें ढूंढती होंगी,
पर अधरों से बिना कुछ बोले,सोचो वो कैसे रहती होंगी।-
भरकर भी ख़ाली रहते हैं भीतर से जो पैमाने,
सच है इक दिन पागल हो जाते हैं दीवाने।-