क्या कीजिएगा जानकर,की कौन हूं मैं...
चंदन अल्फ़ाज़, कुछ जज़्बात, मौन हूं मैं..!
کیا کیجئے گا جان کر کوں ہوں میں
چند الفاظ کُچھ جذبات مونّ ہوں میں
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दिल पे जो बोझ है कम उसको अगर करना है,
हाले दिल तुम अपना किसी को सुना कर देखो।
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अंदाज़- ए- गुफ़्तगू, हम क्या बताएं...
उन्हें दिल से बुलाते हैं जनाब, तो क्यों ना हम उन्हे "तू" कह कर चिढ़ाऐ..!!-
हर एक क़दम पे गिरना-संभालना पड़ा मुझे,
मंज़िल की धुन थी इस लिए चलना पढ़ा मुझे।
हर रोज़ दिल में ख्वाहिशें लेती रहीं जन्म,
हर रोज़ अपने हाँथों को मलना पड़ा मुझे।
यह फ़िक्र थी की ठोकरें खाए न नस्ल-ए-नौ,
बन कर चिराग़ राह में जलना पढ़ा मुझे।
उगने लगे थे शहर में सूरज नए-नए,
मैं बर्फ हो चूका था पिघलना पड़ा मुझे।
'रज़ा' वह जिनके दिल थे जुदा रास्ते जुदा,
अब उनके साथ भी चलना पड़ा मुझे।
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किये जाना हमेशा "रज़ा" तुम माँ बाप की ख़िदमत,
यह एक नेमत है ऐसी जिस का ठुकराना नहीं अच्छा।
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#गुस्ताखी माफ करना #
छुप छुप कर देखा करता हूं
अक्सर अकेलेपन में
तुझसे ही बाते किया करता हूं
तू ना सही तेरी तसवीर ही सही
देख देख कर खुश हो जाया करता हूं
अगर ये गुस्ताखी है मेरी
तो गुस्ताखी माफ करना
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ख़ुशी की आड़ में आँसू छुपा के देता है,
ख़ुशी तो देता है लकिन रुला के देता है।
इस एक शक़्स का कैसे मैं एहतराम करूँ,
जो अपनी भीख भी सब को दिखा के देता है।
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सुकून और नींद का नहीं अब मौत इंतज़ार होता है,
ना बात होने से क्या रिश्ता ख़तम..!अब यह मेरा हरदम ख़ुद से सवाल होता है।
है ज़रूरी इश्क़ ज़िन्दगी के लिए,यह सच कहा तुमने,
मुकम्मल हो जाए इश्क़,यह भी तो आसान कहां होता है।
जिसे तुम चाहो वोह तुम्हें मिल जाए,यह कैसे मुमकिन है,
ताबीर कुछ और होती है, ख़्वाब कुछ और होता है।
वक़्त के साथ हर ज़ख्म भर जाता है,यह कहा किसने,
मेरा यह ज़ख्म तो वक़्त के साथ और भी नासूर होता है।
हमें है इश्क़ उनसे कितना,यह हमें से न पूछा करो,
इश्क़ की मिक़दार नहीं होती है,इश्क़ होता है या नहीं होता है।
बड़ा नामुमकिन सा होता है,खयाल की मुकम्मल अक्कसी कर देना,
वजूद दरअसल 'रज़ा' खयाल का ज़वाल होता है।-
तेरा मेरा रिश्ता, यूं तो कोई वजह का मोहताज नहीं..
चाहे तू पास आए, या दूर जाए..!!-
नन्ही चिड़ियों को भी आज़ार* बना देता है,
वह जिसे चाहे मददगार बना देता है।
इख़्तिलाफ़ात* के जादू उसे आते हैं बोहोत,
थोड़ी रंजिश* को भी दीवार बना देता है।
फूल शाखों से ज़रा नोचने वाले सुन लें,
वक़्त फूलों को भी तलवार बना देता है।
आग नमरूद* जलाता है तो जलाने दो उसे,
इश्क़ हर आग को गुलज़ार* बना देता है।
दौड़ने लगता है जब उसके बराबर कोई,
बस नहीं चलता तो बीमार बना देता है।
'रज़ा' दायरे* ख़ुद बनाते नहीं दुश्मन उसके,
तांग ज़हनो* को वह परकार* बना देता है।
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