मगर ये आधा सच है, खुशियां बांटने से मिलती हैं, किसी भूखे को भर पेट खाना खिलाने से, किसी निर्वस्त्र को वस्त्र देने से, किसी वृद्ध की सेवा करने से, किसी असहाय की यथासंभव सहायता करने से, किसी अनाथ को अपनापन देने से, किसी नि:संतान को धर्म से माता - पिता समझने से | इस संसार में सुख कम और दुःख ज्यादा हैं, अगर हमारी वजह से किसी का दुःख कुछ पल के लिये कम होता है तो अवश्य ये परोपकार करें, फिर देखिये ऐसा करने से जो आत्म संतोष और अपार खुशी, आत्म सुख और आत्मा को जो खुशी मिलेगी, उसका मुकाबला ये भौतिक सुख या भौतिक खुशी कदापी नहीं कर सकती..!!NAJ
**सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया, सर्वे भद्राणी पश्यन्तु, मा कस्यचिद् दुःख भाग्भवेत् **..!!🙏🙏
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जब भी नींद में देखे सपने आंख खुली तो टूट गये।
जैसे घर गये हों खुदा के, सारे रिश्ते पीछे छूट गये ।।-
खुद पर काम करो, और काम से ही प्रेम।
खुद पर यकीन बढ़ेगा, जब न भटकेंगे तुम्हारे नैन।।
स्वभाव ही मूल्यवान है, सो तुम त्यागो अपना चैन।
पल भर सुख की चाह में, न सजाओ तुम अपना रैन।।
कुछ आज मिले कुछ कल मिले, पर मिले न कभी सद्-प्रेम।
आत्मग्लानि न हो कभी, अतः खोलो तुम अपने नैन।।
सद्गुण का तुम पाठ पढ़कर, दो आत्मा को सुख-चैन।
पुण्य आशीर्वाद मिले तब, जब बसे तुम्हारे रैन।।
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किसी साधक ने संत से पुछा की क्यों न हम साधारण जीवन आनंद से जिये आत्मा की उपलब्धि सच में जरुरी है क्या?संत ने कहा की जिसे तुम आनंद कहते हो वास्तविक वो कुछ क्षणों का सुख होता है।पर जब आत्मा की जागृत अवस्था प्राप्त होती है तो जीवन हर क्षण प्रभुप्रेम का निरंतर प्रसारण करनेवाला एक उत्सव हो जाता है जिसे आत्मसुख कहते है जो बाहरी परीस्थितीपर निर्भर नही होता।— % &
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छणिक शारीरिक संबंध को ही
लोग प्रेम का विषय समझ बैठे हैं,
जबकि एक दूसरे के हृदय में प्रेम
परमेश्वर महसूस करने का विषय है.-
धन,पद,तन का विवाह सफल है या,
आत्मसुख,आत्मशांति,आत्ममिलन,
का विवाह सफल है.-
जिस राह पर आत्मसुख,प्रणयसुख,
संतोष और शांति मिलती है,
वही राह उस प्रेम परमेश्वर की राह है.-
आत्मसुख हे अनंत अशा ईश्वरासारखेच अफाट आणी न संपणारे असून कितीही उपभोग घेतला तरी कधीच कमी होत नाही किंबहुना आत्मजागृतीच्या प्रत्येक क्षणाबरोबर ते वृध्दींगतच होत राहाते.
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मुस्कान बिना कुछ लिए हमे प्रसन्नता ही देती है,
इसलिए बिना अपना नुकसान किए मुस्कुराते रहे!-
प्रापंचिक लोक हे नेहेमीच काळजीग्रस्त आणी विवंचनाग्रस्त व प्राप्त जीवनाला कंटाळलेले असतात.या रुग्ण अशा मनोदशेतूनच ते इतरांशी व्यवहार व संवाद साधत असतात.कधीकधी अगदी बाहेरील सुखमय असे प्रारब्ध अनुभवायला आले तरी आतून ते दुःखीच राहतात.अपेक्षा ,भ्रम आणी गोंधळग्रस्त जीवनाचाच ते एकसारखा अनुभव घेत असतात.याचे मूळ कारण म्हणजे बहीर्मुख वृत्तींने सुखाच्या शोधार्थ होत असलेले भ्रमण.पण कधीतरी पुर्वपुण्याईने सद्गुरुची गाठभेट होते व ही बहिर्मुख वृत्ती अंतर्मुख होउन स्वरुपाला म्हणजे आत्म्याला प्राप्त करते त्यावेळीच खरे सुख हे आत्मसुख आहे याची अनुभुती आणी उपरती होते.यानंतर या आत्मसुखाचा निरंतर अनुभव घेण्यासाठी व त्यात स्थिर होण्याकरताच अगदी तळमळीने नित्योपासना केली जाते.
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