हिमांशु यादव   (हिमांशु✍🏻)
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Joined 17 November 2017


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Joined 17 November 2017

बहुत विचार करूँ कभी,
तो घबराता अनजाने से।
कभी कभी डर लगता है,
खुद में ही खो जाने से।

जी रहे किस उलझन में,
अपना सर्वस्व लुटाने से।
कभी कभी डर लगता है,
खुद को ही सुलझाने से।

चाहत है वो मेरे हों पर,
डरता हूँ अपनाने से।
कभी कभी डर लगता है,
सब कुछ यूँ ही पा जाने से।

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बह्र : 212 212 212 212

ये समंदर उबलते नहीं हैं कभी।
बाज यूँ ही मचलते नहीं हैं कभी।

शाम सूरज निकलते दिखा है कभी ?
जो हुए खाक जलते नहीं हैं कभी।

उनके आने की उम्मीद है भी मगर,
जो गए यार मिलते नहीं हैं कभी।

लक्ष्य तय ही नहीं और गिर भी गए,
लोग ऐसे संभलते नहीं हैं कभी।

माँ पिता ही सिखाते सही या गलत,
पेड़ पर ज्ञान फलते नहीं हैं कभी।

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हर तरफ जब गीदड़ों का झुंड होगा
हर गली में गिर रहा नरमुंड होगा
हर जिगर में उठ रहा सैलाब होगा
क्या तुम्हें लगता जमाना साथ होगा ?

हो रहे हों हर हृदय के जख्म गहरे
बादलों सा गिद्ध की आँखों के पहरे
नफ़रती हाथों में जब हथियार होगा
क्या तुम्हें लगता जमाना साथ होगा ?

जब मौत के हाथों में तेरा हाथ होगा
क्या तुम्हें लगता जमाना साथ होगा ?

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जब भी देखूँ हर बार मुझे वह चाँद सी लगती है।

कभी प्रेम में खिली हुई सी
कभी तनिक मुरझाई सी
कभी छुपाती राज अनेकों
कभी किसी परछाईं सी

कभी बहुत चिल्लाती है वह फिर शांत सी लगती है,
जब भी देखूँ हर बार मुझे वह चाँद सी लगती है।

कभी सजी सी दुल्हन लागे
जख्म का मेरे मरहम लागे
कभी मनाती मातम ऐसे
चाँद पे जैसे ग्रहण लागे

है व्यवहार कुशल इतनी हीरे की खान सी लगती है,
जब भी देखूँ हर बार मुझे वह चाँद सी लगती है।

कभी रुलाती, कभी मनाती
निशिदिन नूतन स्वप्न सजाती
कभी उसे मैं गैर सा लागूँ,
कभी जोर से गले लगाती।

जीवन सरिता पर खड़ी हुई एक बाँध सी लगती है,
जब भी देखूँ हर बार मुझे वह चाँद सी लगती है।

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बन प्रभात- पंछी चले हम सूरज से कुछ आगे,
पीछे- पीछे आया सूरज लेकर रश्मि के धागे।

मुर्गे की बाग सुनी मैंने और देखी स्वान अँगड़ाई,
पेड़ों की झुरमुट में देखा गिलहरियों की लड़ाई।

बछड़ों को देखा खूँटे पर उछल कूद मचाते,
पेड़ों से कोयल निकली एक मधुर कूक लगाते।

श्वेत रंग की चादर फैली, हरसिंगार के नीचे,
बच्चों ने फिर ली अँगड़ाई, आये आँखे मीचे।

हुई सुबह और कौवे जागे, काँव काँव चिल्लाये,
शोर मचाते बच्चों से फिर दादा जी झल्लाये।

हंसों का एक झुंड उड़ा जब सूरज की लाली में,
सुंदर- सुंदर फूल चुना फिर मंदिर के माली ने।

व्यस्त हुए सब लोग सवेरे दौड़े- दौड़े भागे,
बन प्रभात- पंछी चले हम सूरज से कुछ आगे।

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#प्रेमज्ञान के दोहे

हर प्रेमी पागल भया, खोजे उत्तम प्यार।
सोच हँसी रुकती नहीं, कितने मूरख यार।।

प्रेम- प्रेम में बह रहे, प्रेम न समझे कोय।
जब न रहेगा प्रेम ये, तब पछतावा होय।।

मानुष से कुक्कुर भला, रहे प्रेम से संग।
थोड़ी सी पुचकार से, लड़ जाता हर जंग।।

प्रेम करो पर अति नहीं, ना दो अति का ध्यान।
जाएंगे मुँह मोड़ सब, और बाँट कर ज्ञान।।

प्रेम रास आवे नहीं, जिसे मिले भरपूर।
सदा तरसता छोड़ि के, हो जाते अति दूर।।

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जब उत्साहवर्धन में की गई बातें भी
उदासीन लगने लगें
जब रोमांच की हर कोशिश
नाकाम होने लगे।
अत्यधिक विचार करने की अपेक्षा
नींद लेना बेहतर लगे
जब दोस्तों से मुलाकात करना
या बात करना मुश्किल लगे
दिनचर्या आनियमित हो जाये
और भोजन करना भी बोझ लगे
भविष्य धुँधला हो, रणनीति न हो
कुछ भी कर पाना असंभव लगने लगे

ऐसी स्थिति में खुद को शांत बनाये रखें
ये तूफान से पहले का सन्नाटा है
हरेक के जीवन में आता है।
अशांत मन से कोई भी असहज निर्णय न लें।

ज़िंदा रहें,
ज़िंदगी सँवर जाएगी।

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#कुंडलिया छंद

नदियाँ पर्वत से चलीं, लेकर निर्मल नीर।
होकर मानुष आलसी, बाँध दिया जंजीर।।

बाँध दिया जंजीर, सकल धाराएँ मोड़ीं।
कूड़े कचरे और, नाले- नालियाँ छोड़ीं।।
जिनका जल था प्राण, बसीं जिनमें थीं सदियाँ।
अब हर लेतीं प्राण, चलीं पर्वत से नदियाँ।।

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212 212 212 212

छोड़ कर वो गए फिर मिले ही नहीं,
गुल रखे जो दुबारा खिले ही नहीं।

दर्द को बंद कमरे में ही सह लिया,
जो दिए दर्द उनसे गिले ही नहीं।

चीखते वो रहे मौन था दिल मेरा,
लब मेरे जो सिले फिर हिले ही नहीं।

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बह्र : 212 212 212 212

जिनको पाने में हमको जमाने लगे।
दूर होकर हमें आजमाने लगे।

पास होकर भी वो पास थे ही नहीं,
मैं निरा बावला, वो सयाने लगे।

चाह उनको जिगर में बसाने की थी,
वो किसी गैर में क्यों समाने लगे।

चाहना भी कभी जुर्म होता है क्या ?
फिर मुझे देख क्यों तमतमाने लगे ?

यूँ परेशां किये क्यों मुझे हर दफा ?
मैं बचाते रहा वो सताने लगे।

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