कागज़ को रंगों से सजाए जाना,
सफर को सुहाना बनाए जाना।
मंजिल की फ़िक्र में गुजरता नहीं,
सुकून सफर में फिर मिलता नहीं।
ख़ौफ़ से बेफिक्र जो मौसम मिले,
उन कदमों को बेहद तजुर्बे मिले।
आज़माइश से जो खेलता रहा,
रंग भरता मुसाफ़िर वो चलता रहा।-
वो शख़्स मेरे लिए खूब रहा
जो मेरा नसीब रहा,
उसके सारे अपनों में
मैं ही सबसे दूर रहा।-
कुछ दबा है सीने में,या उलझा सा लगता है,
ये मोड़ तो पहला है,क्यों गुजरा सा लगता है?
राहें या वक़्त में यकीनन कोई रूठा लगता है,
मौसम ये सुहाना है,क्यों फीका सा लगता है?
हौसलों की उड़ान में,सब अपना सा लगता है,
ढलती हुई शाम सी,ये अंधेरा क्यों लगता है?-
मौसम भी थके होंगे,ये रंग तभी बदले होंगे,
कितने ही नक़ाब में उसे एक ही चेहरे दिखे होंगे।
फ़ितरत भी घबड़ाई होगी जब नक़ाब में आई होगी,
नेस्तनाबूद हो कर वो भी बेहद छटपटाईं होगी।
लाज,दया,डर तुमने जिस दिन निकाल दिए,
भस्मासुर का शहंशाह खुद बन चल दिए।
कुदरत भी हंस कर खुद को सँभालती चली,
अहंकार की आग तुझमें और बढ़ती चली।
इंसान और बस्ती एक साथ जलती रही,
धीरे-धीरे देश की हस्ती भी मिटती रही।
हसरतों की तिल्ली से खुद सब राख करता रहा,
कुदरत की कराह को तू अब तबाह क्यों कह रहा?
लौट चल अपनी बस्ती में बहुत कुछ बच जाएगा,
लाज,डर,दया बसा इंसानियत फिर जी जाएगा।
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समुंदर भी कम लगी,
गहराई जब नापने लगी,
जो दिखे वो सख़्त नहीं थे,
ये ज़ख़्म कोई नई लगी।
कतरा कतरा सोखी गई,
खाली हो कैसे भरी लगी,
वेग संग बह निकल आई,
शिखर की ऊपरी परत लगी।
टकरा औजार जहां टूट गई,
पुरानी ज़ख़्म कोई जो पत्थर लगी,
खामोशी भी कम लगी,
जब उसकी आंखें हँसती मिली।-
इजाज़त हलचल की तू न रख,
दिल ए समुंदर तू खामोश ठहर।
जब दिल पे बिजली गिर गई,
कितनी डूबी,किधर गई ख़बर यहाँ किसे मिली।
दर्द ए दिल तू खामोश ठहर।
गगन-धरती साथ गरजतीं हैं नामों निशान मिटा देती हैं,
जब जमीन पर बिजली गिरती हैं विकराल गड्ढे कर देती है।
दर्द ए समुंदर तू खामोश ठहरना।
सिसकियों से भर जाती है,चीत्कार रोक दी जाती है।
अनन्त गहराई में सब दफन कर खामोश ऊपर आ आती है।
जब दिल पे बिजली गिर गई,दर्द ए दिल तू खामोश ठहर,
इजाज़त हलचल की तू न रख।-
तेरी आग़ोश में सिमट जाऊँगा,
थक कर मैं कहाँ जाऊँगा?
दर्द हूँ इन आँखों से बह जाऊँगा,
थक कर थोड़ी देर सो जाऊँगा।
तू ख़ौफ़ न कर इन उजालों की,
तुझे ग़ैरों से न कभी मिलवाऊँगा।
रहन इतनी खुदा से माँगा लाऊँगा,
इन अश्क़ो को स्याही बनाऊँगा।
तन्हाई तेरी हर डर को मिटाऊँगा,
सोच तू तन्हा मैं किधर जाऊँगा?-
जो कहा भी नहीं सुन लेती है,
ये कलम तुमसा मेरी ख़ामोशी लिख देती है।
वो लम्हे-एहसास वही खड़े मिलते है,
वक़्त रूकता नहीं ये कैसे ठहर लेती है?
हालात से बिछड़ नए सफर में बढ़ चलते है,
आँखें सब छुपा कैसे अश्क़ों में समेटे चलती है।
हम बिछड़े जिस जगह से वर्षों पहले,
वो वीराना शहर आज भी खींच लेती है।-
जहान की ख़ूबसूरती
इस ज़मीं पर उतार दी,
उस चाँद से पूछो
रब ने एक ही पूरी रात दी।
चाँद को जो दाग मिला
और हसीन हो गया,
मुकम्मल ख़ुदा ने यहाँ
कब-किसी को किया।-
रूह में बस कर क़िस्मत में जुदा हो गई,
अपने साथ वो हर सांस मेरी ले गई।
इज़हार-ए-इश्क़ का वो मंज़र आज भी याद है,
न जाने किस बेबसी में वो जुदा हो गई।
इश्क़ की बेबसी को जब भी पढ़ा हमने
अश्क़ उसके आज भी मुझको भिगोतीं रही।
इक झलक के लिए भटकता रहा बहुत
पर उसकी गलियों से भी बचता रहा बहुत।-