कभी तो रखता आंखों पर कभी चढ़ाता हूं सर पर,
कड़ी धूप है ये दुनिया,और तुम काला चश्मा हो।
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उड़ता हूं तब
बाकी वक्त किसी पंक्षी सा
इक पिंजरे में बंद रहता हूं
कच्चा होगा मेरा रंग
तो बारिश मे धुल जायेगा
बातों का इत्र
तर्क की आंधी में उड़ जायेगा
कुछ होगा यदि मुझमें खास तो टिकेगा
वरना सब राख सा झड़ जायेगा
जो झड़ेगा सबसे पहले
यही दिखावा होगा....।
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एक संसार कहीं पर होगा,
जहाँ न कोई बेघर होगा।
मदद की खातिर होंगे हाथ,
मुश्किल मे कोई गर होगा ।
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बहुत पानी के छींटों से भिगोया आंख को अपनी,
मगर एक ख्वाब आंखों से निकलता ही नहीं बाहर।
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सौ-सौ दरवाज़ों के पीछे छुपकर बैठा हूँ,
नहीं हूं मैं वो जो तुमको दस्तक पर मिलता है।
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मैं इक चुप्पी मे बीत गया,
तुम बक-बक मे भी बाकी हो ।
क्या ख़ाक चलेगा मैख़ाना,
जब नशे मे खुद ही साक़ी हो ।।
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हम तुम
कमरे की उन दो दीवारों की तरह हैं
जो न पास आती हैं
न ही दूर जा पाती हैं
एक दूसरे से ।
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छठा तत्व
आदिकाल के
सबसे बुद्धिमान लोगों ने
झोंक दिया सारा ज्ञान
और पंहुचे सार पर
कि विलय है शरीर
पंच तत्वों का
आखिर कैसे भूल गये वो
छठे सबसे ज़रूरी तत्व को
मां !-
बादल कई उदासी के
अम्बर को ढक लेते हैं
शाम का काला रंग मेरे
हर ओर बिखर सा जाता है
तब तेरा न होना जैसे
निर्वात सा पैदा करता है
तब हवा में सांस नहीं होती
बस धूल के मंज़र होते हैं
जब साथ नहीं होते हो तुम
तो सपने बंजर होते हैं-
पसीना कबसे कर रहा था
तुम्हारी प्रतीक्षा
छाते खुलने को थे बेताब
और आम पकने को आतुर
स्वागत है तुम्हारा ग्रीष्म
कहो क्या लोग,चाय?
हां याद आया
तुम तो ठण्डा शर्बत लेते हो-