व्यक्तित्व ही तो है तेरा तू अब भी बरकरार है
बाधाओं के अंत का अनंत ही विस्तार है
क्यूँ व्यर्थ सोचकर के तू खुद से ही हताश है
तू सोच मत तू कर गुज़र ये वक़्त की दरकार है
क्या भला कर्ण को है मातृसुख मिला कभी ?
या मिथिल नरेश को राम संग मिला कहीं ?
पर नाम तो जगत में हुआ है काम से सदा
किसको क्या मिला जगत ये न पूछता कभी
विचार तो विचार हैं विचार ही रह जाएँगे
जो कोसते हैं तुझे वो कोसते ही जाएँगे
तू सबका तज के साथ बस सारथी के संग बढ़
हवा के वेग से न डर बिना डरे तू विचर
न इधर न उधर जहां चलाये ईश्वर
उधर की ही तू राह ले न और कोई चाह रख
कठिन बड़ी है ये डगर , मुसीबतें हैं हर प्रहर
मुसीबतों को ध्वस्त कर , औरों की तू मिसाल बन
चार दिन का खेल है तू खेल का ये हाल कर
की लोग तेरी जय कहें मस्तक को तेरे लाल कर
~ योगेश
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