ख्वाहिशों का एक चेहरा आज के ईमान पर
ख्वाब अब बिकने लगे हैं स्वार्थ की दुकान पर।
फूल हैं कागज के सजे हैं आज बिन खुशबू मगर
तितलियां मंडला रही हैं कांच के गुलदान पर ।
खो रहे हैं आज रिश्ते स्वार्थ ज्यों बढ़ता गया
आज दौलत को तवज्जो मिल रही सम्मान पर।
ये गरीबी या अमीरी जाति मजहब ऊंच नीच
जान कितनी जा चुकी हैं ऐसी झूठी शान पर।
जिसके कदमों में झुका करता कभी था आसमान
आदमी थकने लगा है उम्र के अवसान पर।
योगेंद्र पाठक
लखनऊ-
हर वक्त मुस्कुराने की आदत नहीं रही ।
ये जानता हूँ कोई... read more
मौसम बहार खुशबु- ए- गुल सब उसी का है।
पायल की खनक नूर ए बदन सब उसी का है।
उस रूपसी के सामने फीका है चंद्रमा
ये रंगत ए गुल और चमन सब उसी का है।-
मिलना अगर नसीब है बेशक मिलेंगे हम।
मौसम खिजां का हो मगर फिर भी खिलेंगे हम
चाहत भरी दुनिया से उदासी को मिटाने
बेशक तुम्हारे संग संग चलते रहेंगे हम-
यूं दूर दूर से ही से ही सही पर करीब हो
अच्छा ये हुआ तुम कि हमारे नसीब हो
चाहत फरेब है ये बताएं भी क्या तुम्हें
और इसको ढूंढते हो भला क्या अजीब हो।-
वो इश्क क्या जो ग़म को निभा कर नहीं गया।
आंखों को जलते ख्वाब दिखाकर नहीं गया।
कोई फरेब देर तक रहता नहीं कायम
ये बात आईना क्यों बता कर नहीं गया।
ख्वाबों के अंजुमन में रहेंगे भला कैसे
वो बाद वस्ल मुझको सुला कर नहीं गया।
यूं तो नई उलझन है नए लोग नया दौर
हां हादसा हर हाल गिना कर नहीं गया।
मेरी गजल को नाम से अपने वो लिख रहा
अच्छा ये रहा मुझको सुनाकर नहीं गया।
मै इश्क में हूं उसने कहा रोज ही मुझको
हां ग़म खुशी का फर्क बता कर नहीं गया।
जाते हुए आंखों में मेरी थे कई सवाल
वो दास्तां अपनी तो सुनाकर नहीं गया।
योगेन्द्र कुमार पाठक
लखनऊ
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!!!......जिंदगी.......!!!
चिलचिलाती धूप में जब मोम के रिश्ते मिले ।
दोस्तों से पेश्तर दुश्मन मुझे सच्चे मिले ।
तुम सम्भालों वेदना संवेदना की हर लहर
अपने सपने आप ही पलकों पे वो धरते मिले ।
बच्चों के चेहरे पे छायी इस ख़ुशी को देखिये ।
इम्तिहाँ के बाद जब उनको नए बस्ते मिले ।
बेसबब इस बेबसी का हाल मत पूछो कोई
जुस्तजू खुशियों की थी पर दर्द ही सस्ते मिले ।
बदनसीबी या के है साजिश मेरे रकीब की
मंजिलों की ओर जाते बंद सब रस्ते मिले ।
योगेन्द्र पाठक
लखनऊ-
जो प्रेम कभी हो के मयस्सर नहीं होता
उससे बुरा यारा कोई मंजर नहीं होता।
एक याद बन के साथ फिरा करती है अक्सर
पर ठहर ही जाना भी तो बेहतर नहीं होता।-
बड़े होकर ये परिंदे तो उड़ चले हैं कहां।
बचा उदास सा मन और सूना सूना जहां।
वक्त के साथ यूं ही लोग छोड़ देंगे तुम्हे
यही बेहतर है खुद की फिक्र करो जानेजाँ।-
ये किसकी चाह थी कि हम शहर जलता हुआ देखें
अमन और चैन का सूरज यहां ढलता हुआ देखें।
हवा रूखी थी या मौसम खिजां का हो गया शायद
ये किसकी चाह थी बागों को हम उजड़ा हुआ देखें।
किया है जुल्म उसने जिस तरह वैसा ही बदला हो
मेरी ख्वाहिश थी कि दुश्मन को यहां मरता हुआ देखें।-
सिर्फ हंसने से हंसाने से नहीं जाती है।
ये उदासी कहीं जाने से नहीं जाती है।
फिक्र और जिक्र में यारे ग़में तन्हाई में
सच कहूं नींद बुलाने से नहीं आती है।
वो बुलाती है मगर बेबसी ओढ़े चुप हूं।
तंज और जख्म गिनाने से नहीं जाती है।
राजे दिल सबसे छिपाया है इश्क में मैने
ये है रुसवाई छिपाने से नहीं जाती है।
जख्म को चाहिए केवल शिफा दुआ यारों
जख्म की टीस गिनाने से नहीं जाती है।
रोशनी चाहिए तो आंख मिला सूरज से
तीरगी दिल को जलाने से नहीं जाती है।
आईना सिर्फ तुम्हें एक सच दिखाएगा
ख्वाहिशें ख्वाब के आने से नहीं जाती हैं
योगेन्द्र पाठक
लखनऊ
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