क़ैद रहती है तेरे जलवों में
रात आँखों से कब रिहा होगी-
मुसाफ़िर हैं बस, मुहब्बत वाले
कविता : #poetrybydeewana
ग़ज़ल : #gh... read more
गलियारा - नज़्म
तुम ठीक ही कहती थी
तुम इक ख़्वाब हो,
इक ख़्वाब के सिवा और क्या हो
वो ख़्वाब जिसे मैंने अपनी खुली और बंद आँखों से देखा
वो ख़्वाब जिसे तुमने और मैंने मिलकर सींचा
जो मेरी और तुम्हारी आँखों में बरसों तक पलता रहा
इस ख़्वाब की तक़लीद करते हुए
मैं बहुत दूर निकल आया जानाँ,
और यहाँ से अब इस ख़्वाब को
हकीक़त से मुख़्तलिफ़ करना मुमकिन नहीं है
मेरी ज़िन्दगी या'नी तुम,
इक गलियारे का गुज़र है
जिसके एक छोर पर है मेरा ख़्वाब
और दूसरे छोर पर अमली हकीक़त..-
अपने ज़िन्दान-ए-तौर दीं के नहीं
पाँव सरकश हैं सर ज़मीं के नहीं
क्या हुआ इश्क़ वो, तलाश करो
अब मिरे ख़्वाब हमनशीं के नहीं
ये तिरे दायरे के आशिक़ दिल
तेरे होंठों के हैं जबीं के नहीं
मेरी हालत पे ऐ'तिबार न कर
ये दलीलें ये ख़त यकीं के नहीं
हम वहाँ है जहाँ से जानाना
हम किसी के नहीं कहीं के नहीं
आप तो सब की हाँ में हाँ कीजे
आपके दिन मियाँ नहीं के नहीं
इश्क़ करियो तो रहियो 'दीवाना'
कार-ए-उसरत निशाँ ज़हीं के नहीं-
किसी को ग़म किसी को बेक़रारियाँ दी हैं
हमें तो इश्क़ ने मय-ख़्वार मस्तियाँ दी हैं
लुटा के गंज-ए-तबस्सुम फ़ज़ा में जानाना
गुलों को रंग हवा को रवानियाँ दी हैं
खिले हैं फूल से चेहरे ख़िज़ाँ के मौसम में
सजा के ख़्वाब में माँ ने कहानियाँ दी हैं
करिश्मा देखिये जानम मिरी मुहब्बत का
लबों को चूम के गालों को सुर्खियाँ दी हैं
तमाशबीन बना देखता तमाशे को
ख़ुदा ने दीन में आदम को बर्छियाँ दी हैं
लगा सरिश्ता-ए-उल्फ़त वफ़ा के बाड़े में
तन्हाइयों ने गवाही में हिचकियाँ दी हैं-
मख़मली जिस्म से क़बा निकली
हाय दिल जान की क़ज़ा निकली
हो रहे ख़ाक आलिम-ओ-ज़ाहिद
हुस्न की बंदगी वबा निकली-
लुटा के गंज-ए-तबस्सुम फ़ज़ा में जानाना
गुलों को रंग हवा को रवानियाँ दी हैं-