आईना
हँसु जो मैं तो ये भी खिलखिलाता है,
जो रोयूँ कभी तो ये भी बिलखता नज़र आता है।
मेरे चेहरे के दाग भी तो ये कहाँ छुपाता है,
और लगाऊं जो कभी काली बिंदी तो ये मुझसे ज्यादा इठलाता है,
उदास हूँ अगर तो ये भी कहाँ मुस्कुराता है,
और जो हार जाऊं कभी मैं तो ये हौंसला बन मेरे सामने खड़ा हो जाता है।
आईना जो सच बताता है, और ये हमेशा मुझे-मुझसे मिलता है ।-
हमें वो होली याद है...
जब चार दिन पहले से घरों में जमघट लग जाता था।
टेसू के फूलों से रंग बनाया जाता था।।
गुजिया बनाने का एक अलग उत्सव सा मनाया जाता था।
पड़ोस की बुआ, चाची को निमंत्रण देखे बुलाया जाता था।।
लड़कों की टोलियां सड़कों पर रंग गुलाल उड़ाती थीं।
लड़कियां बेचारी खिड़की के पीछे से झांकती नज़र आती थी।।
अपनों की तो छोड़ो बात तब पराये भी मिलने आते थे।
हँसी ठहाकों की गूंज से मौहल्ले रंग जाते थे।।
नाश्ते की मेज पर प्यार परोसा जाता था।
ये उस समय की बात है जब रिश्तों से अपनेपन का स्वाद आता था।।
ऐसी आधुनिकता का भी भला क्या मोल है।
रिश्ते ही बिक रहे , जो सबसे अनमोल है।।
सही समय है बच्चों को अपनी संस्कृति का ज्ञान कराने का...
वरना वो दिन दूर नहीं, जब जमाना आएगा सोशल मीडिया के स्टेटस पर त्योहार मनाने का...-
काम धाम सब छोड़ के सैनिटाइजर की बोतल को लो साथ,
क्योंकि अब फ़िर बार-बार सैनिटाइज जो करने हैं हाथ।
लिपस्टिक लगाएं या न लगाएं बहुत बड़ा ये टास्क,
चालान कट जाएगा तनिक जो सरका मास्क।
अपनों का ख़्याल करना बहुत है जरूरी,
सामाजिक नहीं, आपस में रखिये शारीरिक दूरी।-
उम्र 18 हो या 21...
सवाल घुंगघट का,
बवाल दहेज का।
ताने समाज के,
उड़ते परख्च्चे स्त्री के मान के।
सवाल चौखट की आड़ का,
बवाल सपनों की उड़ान का।
नारे 'बेटी पढ़ाओ' के,
घुटते गले 'बेटी बचाओ' के।
सवाल बाल विवाह का,
बवाल बलात्कार का।
एक तरफ चर्चे आज़ादी के,
दूसरी तरफ सिकुड़ते हुए पंख नारी के।-
दिल करता है फिर बच्चा बन जाऊं,
उठाऊं बस्ता और स्कूल की राह पर निकल जाऊं।
जो डरु कभी तो माँ के आंचल में छुप जाऊं,
और रोते-रोते, यूँही जी भर के खिल-खिलाऊँ।
दिल करता है फिर बच्चा बन जाऊं..-
साल दर साल दहन रावण का होता है,
फिर कौन है जो हर साल जन्म रावण को देता है।
कोई हो राम सा तो सामने आए,
अतः खुद में रावण पाल कर, रावण दहन में न जाए।-
सुनो ना, कुछ रोज तुम भी ससुराल हो आओ।
ठहरो कुछ दिन , कभी माँ के पैरों में तेल लगाओ,
भोर होने से पहले आंगन की तुलसी में जल डाल आओ।
सुनो ना, कुछ रोज तुम भी ससुराल हो आओ।
आफिस को देरी न हो इसलिए वक़्त पर डिब्बा बनाओ,
मोजे अलमारी की दूसरी दराज में रखे हैं कभी तुम भी रसोई से चीखकर ये बात बताओ।
सुनो ना, कुछ रोज तुम भी ससुराल हो आओ
दूधवाले की घंटी बजते ही सब छोड़ के जाओ, सब्जी जल न जाए इस खौफ में पड़ोसन की आधी बात सुन के भाग आओ।
सुनो ना, कुछ रोज तुम भी ससुराल हो आओ।
पापा की दवाइयों से लेकर जूस तक सब वक़्त पर पहुंचाओ, और मिले जो थोड़ा वक़्त तो उनके साथ बैठ ठहाके भी लगाओ।
सुनो ना, कुछ रोज तुम भी ससुराल हो आओ।
जब थक हार कर तुम कमरे में आओ, मैं सुना सकू तुम्हे अपनी और तुम वो बचा हुआ समय सिर्फ मेरे लिए लाओ।
सुनो ना, कुछ रोज तुम भी ससुराल हो आओ।-
हे प्रभु अब तो रुक जाओ ...
देखो जारा आपके संसार का क्या हाल हो रा रहा है...
बिछड़ रहे हैं अपने और पीछे परिवार रो रहा है।
हवा की है किल्लत और दवाओं का अन्धाधुंद व्यापार हो रहा है।
मास्क की आड़ में न जने कितनो का दर्द छुप रहा है,
और वो सैनिटाइजर कैसे ख़रीदे जिसका बच्चा भूँखा सो रहा है।
न खुशियों में शामिल हैं अब अपने, न दुःखों में किसी का इंतज़ार हो रहा है।
शमशान ले जाने को मजबूर हैं अब अपने मृत बाप को बेटियां, सोशल डिस्टनसिंग का कुछ यूं पालन हो रहा है।-
थोड़ा रंग घोल दो इन आंसुओं में...
बेचारे ये तकिये,
कब तक राज़ छुपाते रहेंगे...-
कभी माँ की कमी को महसूस किया है क्या...
कभी किसी ने बिन कहे एक चाय का कप तुम्हरे हाथ में दिया है क्या...
खाना बेशक तुम भी अच्छा बनाती हो, मगर जब न हो मन तो किसे ख्यालों में लाती हो....
या कभी कभी चुपचाप भूंखी ही सो जाती हो...
कभी अपनी फरमाइशों के दिन याद करके आंसू बहाये है क्या...
या कभी किसी ने उसकी तरह तुम्हरे नखरे उठाये हैं क्या..
बेशक तुम उससे मिलने वक़्त वक़्त पर जाती हो...
लेकिन क्या उसे कभी बताया है,
माँ तुम बहुत याद आती हो...
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