मेरे हाथों में अक्सर खुली हुई किताब को देखकर वो कहा करती थी "मैं भी पाठक बनना चाहती हूं" और हम बिना वक्त गवाए किताब को उसके हाथों में रखकर कहते, तो बन जाओ ना इसी वक्त "पाठक"।
उसका अपने नाम के आगें पाठक लगा लेना, मुझे मन ही मन हंसने पर मजबूर कर देता था, मैं इसे उसकी नादानी मान लिया करता था।
स्नेः स्नेः कॉलेज का दिन कब खत्म हो गया, हमें पता ही नहीं चला। वो हम सबका कॉलेज में आखिरी दिन था। अगली सुबह हम अपना बोरिया बिस्तर बांधकर अपने अपने घर को जाने वाले थे। रात के तकरीबन साढ़े दस बजे हॉस्टल रिसेप्शन गार्ड मेरे कमरे के दरवाजे पर नॉक किया। मैं आंख मिचते हुए दरवाजा खोला ही था की उसने कहा, एक मैडम हॉस्टल मेन गेट पर आपका इंतजार कर रही है।
गेट पर कल्पना खड़ा देख मुझे सहसा याद आया, उसकी ट्रेन रात एक बजे की थी। वो मेरे हाथों में कभी मुझसे ली हुई किताब "मुसाफिर कैफे" को रखते हुए बोली, घर जाकर मुझे भूल मत जाना। मैं तुम्हारा इंतजार करूंगी मिस्टर पाठक।
इससे पहले की हम उसकी कही हुई बातों का अर्थ समझ पाते वो मुझसे लिपटते हुए बोली मैं ताउम्र के लिए बनना चाहती हूं एक सुधी पाठक, "तुम्हारी "
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