यक्सर बारिश की बूंदों से लिक्खा है मैंने तुम्हें
और भिगोया है खुदको उन बूंदों से
शाइद ये उम्मीद थी के जिसके ख्यालों से लबरेज़ हूं मैं
उसके कतरे से वाक़िफ हो
मिरा जिस्म उसके अक्स को पहन ;
भीतर मन बैठे मयूर के रक्स को रूबाई में तब्दील करदे-
केसरी रक्त से सींच
गुलामी मुक्त इरादों से खींच
जीता अपने मुल्क को
हरा बाहिरी-झूठे वादों की टींस |
श्वेत रक्खा मध्य अपने;
अपने ध्वज के बीच
लहराया तिरंगा सबसे ऊपर
थामे ध्वज दंड हृदय समीप ||
नज़रों से नमन हर बार किया
और सपूतों को याद ;आंखें मीच
"भारतीय" पहचानने खुदको ;लगा 190 साल,
76 वर्षों बाद आज ; "आज़ाद" खुदको कहना भी है एक बड़ी सीख |||-
ख़ामोश लब चीखा है मैंने तुम्हें,
और तुमने पत्तों की सरसराहट को सुनके,
ओस से कुरेदा है मुझे आंगन को खुलती खिड़की के कांच पे ,
यकीनन चांद पे उसकी परछाई को पढ़कर ,
इश्क़ के नाम आए इल्ज़ामों को गले लगाने का मन कर रहा है ||-
नहर के उस पार के गांव से
चलकर आता है एक जादूगर
जो कहता है
जंगल को जाते पगडंडी के आख़िर में
एक पेड़ है जिसके फूलों से बनी इत्र लगाकर
कुछ हूरें करती है सम्मोहित काफ़िरों को |
काफी लगा था मुझे ये बहाना
जंगल में दाख़िल होने को ,
ख़ैर अब जब मैं जंगल के आख़िर में पहुंचा हूं
मिला है मुझे एक पेड़ और उसपे लगे कुछ फूल,
जिसकी खुशबू में लिपट कर मैं
खुद ही मंत्रमुग्ध हो चुका हूं ||
किसी हूर की मौजूदगी तो नहीं ;
लेकिन आसमां की लाली पे मन ज़रूर अटका है ,
शाइद आसमां का इशारा है
फलक से उतरेगी मेरी हीर |
सोच रहा हूं ;कुछ चांद रात यहीं उसका इंतज़ार कर लूं ,
अरसों के इंतजार में खामखां क्यों हीं इज़ाफा करना ||-
वो कहते अविनाश बीमार ; उसपे कोई साया है,
गुलाबी आँखें में सात रंगों को दफनाया है
इंसानी जिस्म वो ;हूरों की चाहत रखता है
नादान है ; ज़मीं पे रेंगता ,क्षितिज को मापता आया है
गिरकर भी चैन नहीं ,इरादों को उसके,
चोटिल है ,बावजूद खुदको मजबूत बताया है
खुदपे लगते दावों को बस इतना ही झूटला पाया
मैं बोला ;
"बादलों पे सवार मिरा चारागर आया है;
मिरा रोग भी तो आसमानी है "-
वादियों में जो भटके हो अविनाश तुम
मालूम पड़ता है किसी हूर को अपने दिल में समाए हो तुम
के अबके शाइद खुद में भी ना लौट पाओ तुम
इस घनेरे जंगल में अब सिर्फ़ क़ैस कहलाओगे तुम-
सन्नाटों के शोर में
दफ़न करता हूं मैं ख़ामोशियां अपनी
और तुम पढ़ते हो सिर्फ़ लफ़्ज़ मिरे ,
उस चीख को गर सुन जो पाते तुम
तो तुम भी चांद जैसे
मुझपे रौशन हो चूके होते ||-
कांच की परतों पे
बादलों की पर्दों से लिक्खा है ;मैंने आसमां अपना
अब देखो ज़मीं पे फिसलन तो बहुत है
लेकिन तबियत से जो फिसल गए अगर ;
ज़मीं को अपना पहला इंद्रधनुष मिल जाएगा ||-
कल हीं उसके कूचे छोड़ आए हम दिल अपना ,
वो आज हमसे हमारी नब्ज़ पूछते हैं ,
हम बोले नैन और बात उनकी ,वो नज़्म और शाइ'र का नाम पूछते है ,
अब बोले क्या हम "चेहरा उनका ग़ज़ल , और होंठ शेर हैं"
कमबख़्त रक़ीब आईने को इक और ईद हमें गवारा न होगा ||-
लकीरें तोड़ते मडोडते है ना ,
पुरानी सरहदों से बंटवारा बहुत हो रहा है ||-